Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अमाप
जो कहा है वैसे गुरुसूत्रके कहनेकी कोई आवश्यकता नहीं ? सो भी अयुक्त है। द्वंद्वगर्मित सूत्रके है है जानेपर दो चकारका तो लाघव अवश्य है परंतु मिश्रकी जगह क्षायोपशमिक कहनेपर चार अक्षर है और बढ़ जाते हैं जो कि महा गौरव है इसलिये यह बात निश्चित हो चुकी कि सूत्रकारने जो बनाया , वही ठीक है उसके स्थानपर अन्य सूत्रके बनाने में दोष आते हैं।
मध्ये मिश्रवचनं क्रियते पूर्वोत्तरापेक्षार्थ ॥ २१॥ औपशमिक और क्षायिक यह युग्म और औदयिक एवं पारिणामिक यह युगल, इन दोनों युगके बीचमें मिश्रभाव पाठ रक्खा है ऐसा करनेसे इतना ही प्रयोजन समझ लेना चाहिये कि भव्यके , पिशमिक आदि पांचों भाव होते हैं अर्थात् औपशमिक सम्यक्त्व औपशमिक चारित्र, क्षायिक सम्य- है स्व और क्षायिक चारित्र, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व-दर्शन और ज्ञान, एवं क्षायोपशमिक चारित्र, औद-है पैक और पारिणामिक ये पांचो भाव भव्योंके ही होते हैं और अभव्योंके क्षायोपशमिक औदयिक और पारिणामिक ये तीन ही भाव होते हैं औपशमिक और क्षायिक ये दो भाव नहीं होते । शायोप-3 मिक भावोंमें भी ज्ञान और दर्शन दो ही भाव हो सकते हैं ज्ञान दर्शनसे मिथ्याज्ञान और मिथ्यादर्शन समझना चाहिये क्योंकि सम्यग्दर्शनके बिना सम्यग्ज्ञान आदि नहीं होते।
___ जीवस्यति वचनमन्यद्रव्यनिवृत्त्यर्थं ॥२२॥ ___ सूत्रमें जो जीवस्य यह पद दिया है उसका तात्पर्य यह है कि औपशमिक आदि सब भाव जीवके हैं ही निज तत्व हैं। जीवसे भिन्न अन्य किसी पदार्थक नहीं। यदि जीवस्य यह पद न होता तो अन्यके भी वे स्वभाव कहे जाते। शंका
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