Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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यह षष्ठ्यंत देवदच शब्दका प्रयोग है परंतु अर्थके अनुसार विभक्तिका परिवर्तन कर पीछे 'देवदचः' यह है । प्रथमांतका प्रयोग रक्खा है । मतिश्रुतयोरित्यादि सूत्रमें भी अर्थके अनुसार षष्ठ्यंत विषय शब्दका ही
प्रयोग इष्ट है इसलिए पंचम्यंत विषय शब्दका परिवर्तन कर षष्ठवंत विषय शन्दके मानने में कोई दोष ६ नहीं । शंका-मतिश्रुतयोरियादि सूत्रमें जो 'द्रव्येषु' पद दिया है वहांपर एक वचनांत द्रव्य शब्दका ६ उल्लेख ही पर्याप्त था बहुवचनांत द्रव्य शब्दका उल्लेख क्यों किया गया ? उचर
. द्रव्येष्विति बहुत्वनिर्देशः सर्वद्रव्यपर्याय संग्रहार्थः ॥२॥ तद्विशेषणार्थमसर्वपर्यायगहणं ॥३॥ ____जीव धर्म अधर्म आकाश काल और पुद्गलके भेदसे द्रव्य छह प्रकारके माने हैं। सूत्रों कहे गये है। है द्रव्य शब्दसे उन छहाँ प्रकारके द्रव्योंका ग्रहण हो इसलिए 'द्रव्येषु' यह बहुवचनांत द्रव्य शब्दका है। है प्रयोग किया गया है। तथा मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके विषयभूत द्रव्य के कुछ ही पर्याय हैं सर्वपर्याय वा * अनंत पर्याय नहीं यह बतलानेके लिए द्रव्यका असर्वपर्याय यह विशेषण किया है यदि 'द्रव्येषु' इतना
मात्र ही कहा जाता और 'असर्वपर्याये'' यह उसका विशेषण न दिया जाता तो सब ही द्रव्य सामान्य ६ रूपसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके विषय हो जाते । यदि यहॉपर यह शंका की जाय कि द्रव्योंकी कुछ ही हूँ पर्यायोंको क्यों मतिज्ञान और श्रुतज्ञान विषय करते हैं, सर्व पर्याय वा अनंत पर्यायोंको क्यों नहीं ? हूँ
उसका समाधान यह है कि रूप आदि पदार्थों के जाननेमें मतिज्ञान चक्षु आदिइंद्रियों की अपेक्षा रखता है। * मतिज्ञान जिस द्रव्यको विषय करता है उसके जिन रूप आदि पर्यायोंके जाननेकी चक्ष आदिति
शक्ति है उन्हीं रूप आदि पर्यायोंको मतिज्ञान जानता है। उस द्रव्यमें रहने वाले सर्व पर्याय वा अनंत है पर्यायोंके जानने की चक्षु आदि इंद्रियों में शक्ति नहीं इसलिए अपने विषयभूत द्रव्यकी सर्व पर्याय वा
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