Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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तिक पदार्थों का ग्रहण नहीं होता है । इसलिये रूपसे शुक्ल आदि अर्थके मानने में किसी प्रकारका दोषनहीं।
भूमायनेकार्थसंभवे नित्ययोगोऽभिधानवशात ॥२॥ रूप जिसके हो वह रूपी कहा जाता है यहांपर व्याकरणसे मत्वर्थी 'इन्' प्रत्यय करनेपर 'रूपिन्' शब्द बना है । मत्वर्थीय इन् प्रत्ययके 'बहुत' आदि अनेक अर्थ होते हैं परन्तु यहां प्रकरणवश उसका नित्ययोग अर्थ लिया गया है इसलिये 'क्षीरिणो वृक्षाः' जिस तरह यहाँपर क्षार शब्दसे होनेवाली मत्वर्थीय 'इन्' प्रत्ययका अर्थ नित्ययोग है और यहां नित्ययोग अर्थ माननेसे जो वृक्ष हमेशा दूधवाले हों वे ही क्षारी वृक्ष कहे जा सकते हैं अन्य नहीं। उसीप्रकार रूपी यहाँपर भी मत्वर्थीय 'इन्' प्रत्ययका || नित्ययोग अर्थ है एवं वैसा अर्थ माननेपर जो पुद्गल सदा रूपयुक्त हों-कभी भी जिनसे रूप जुदा ॥५॥ न हो सके उनका रूपी शब्दसे ग्रहण है। पुद्गल द्रव्यसे कभी रूप जुदा हो नहीं सकता इसलिये अवधिज्ञान पुद्गल द्रव्यके पर्यायोंको ही विषय करता है यह स्पष्टार्थ है । शंका-यदि रूप शब्दका शुक्ल आदि ही अर्थ किया जायगा तो पुद्गलके पर्याय रूपद्वारसे ही अवधिज्ञानके विषय होंगे, रसादि बारसे न हो सकेंगे और शास्त्रमें रस आदिके द्वारा भी पुद्गल-पर्याय अवधिज्ञानके विषय माने हैं इसलिये यहां पर शास्त्रविरोध होता है ? उत्तर
_ तदुपलक्षणार्थत्वात्तदविनामाविरसादिग्रहणं ॥३॥ १ रूपके कहनेसे रूप रस गंध स्पर्श इन चारोंका ग्रहण समझना चाहिए। चारों ही अविनामावी है इसलिये एकके महबसे . सोंका ग्रहण हो जाता है। .