Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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त०रा०
भाषा
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वा भव अर्थमें अणू प्रत्यय करने पर नैगम शब्दकी सिद्धि हुई है । "निगच्छंत्यस्मिन्निति निगमनमात्रं वा निगमः, निगमे कुशलो भवो वा नैगमः' पदार्थ जिसमें आकर प्राप्त हों वा जो प्राप्त होनामात्र हो उसका नाम निगम है और निगममें जो कुशल हो वा होनेवाला हो वह नैगम है । यहां पर निगम शब्दका अर्थ संकल्प है । इसलिए जो संकल्पमें कुशल होनेवाला हो वह नैगम शब्दका अर्थ है तथा जो पदार्थ वर्तमानमें तयार नहीं है तो भी उसके विषयमें यह संकल्प कर लेना कि वह वर्तमानमें मौजूद है ऐसे संकल्पित अर्थका ग्रहण करनेवाला नैगम नय है प्रस्थ इंद्र गृह गमी आदि स्थलों पर अर्थके संकल्प मात्रका ग्रहण करना ही उस नैगम नयका व्यापार है और वह इस प्रकार है
हाथ में फरसा लिये किसी पुरुष को पूछा- भाई कहां जाते हो ? उत्तरमें उसने कहा कि- मैं प्रस्थ ( एक सेर वजनवाला काष्ठपात्र ) लेने जा रहा हूं । यद्यपि काष्ठकी सेर पर्याय अभी तैयार नहीं किंतु जब काष्ठ लावेगा तब उसका सेर बनेगा तथापि लाये जानेवाले काष्ठसे सेर बनाने का संकल्प है इस | लिये नैगम नय की अपेक्षा में प्रस्थ - काठका बना सेर, लेने जा रहा हूं यह वचन बाधित नहीं । इसी प्रकार एक मनुष्य काष्ठसे इंद्रकी प्रतिमा बनाना चाहता है अभी वह केवल इंद्रकी प्रतिमा बनानेकी योजना कर रहा है यदि उससे पूछा जाता है कि भाई ! क्या कर रहे हो ? तो उत्तर मिलता है कि मैं इंद्र बना रहा हूं । यद्यपि अभी इंद्रकी प्रतिमा तयारी नहीं है किंतु इंद्रके बनाने का संकल्प है तो भी 'मैं
१ संकल्पो निगमस्तत्र भवोऽयं तत्प्रयोजनः । तथा प्रस्थादिसंकल्पस्तदभिप्राय इष्यते ॥ १८ ॥ श्लोकवार्तिक पृष्ठ २६९ । २ कंचित्वं परिगृहीतपरशुं गच्छतमवलोक्य कश्चित् पृच्छतीति किमर्थं भवान् गच्छतीति ? स ग्राह प्रस्थमानेतुमिति नासौ तदा प्रस्थपर्याय: सभिहितः, तदभिनिर्वृत्तये संकल्पमात्रे प्रस्थव्यवहारः । सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ ७८
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