Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
HA
तरा
१५२
AMAVASANGA-AGNIONARMALSO-PROS439
शब्दका उल्लेख किया है उसका तात्पर्य यह है कि प्रमाणप्रकाशित अनंतधर्मस्वरूप पदार्थोंकी पर्यायोंका जो नयोंसे प्ररूपण है वह निर्दोषरूपसे है अर्थात् नयोंके द्वारा निरूपण किये गये पदार्थमें किसी प्रकारके सशय आदि दापका सभावना नहा रहता। इस रूपस यह नयका सामान्य लक्षण निदोष है।
नयोंके द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक ये दो मूल भेद हैं । जहां पर द्रव्य है ऐसी बुद्धि है वह द्रव्यास्तिक है । यह नय केवल द्रव्यका ही विषय करता है । पदार्थों के विकार-पर्याय, और अभावको द| विषय नहीं करता क्योंकि द्रव्यसे अन्य पर्याय और अभाव कोई पदार्थ नहीं। तथा पर्याय है यह जहां
पर बुद्धि है वह पर्यायास्तिक है । यह नय केवल जन्म मरण आदि पर्यायोंको ही विषय करता है द्रव्यको
नहीं क्योंकि पर्यायोंसे भिन्न कोई द्रव्य पदार्थ नहीं। अथवा जिस नयका अर्थ द्रव्य ही हो, द्रव्यस्वरूप शाही होनेके कारण गुण कर्म न हो वह द्रव्यार्थिक है और जिस नयका रूप आदि गुण और उत्क्षेपण
आदि कर्म ही अर्थ हो 'पर्यायोंसे भिन्न द्रव्य कोई पदार्थ नहीं इसलिये द्रव्य अर्थ न हो' वह पर्यायार्थिक है। अथवा 'अर्यते गम्यते निष्पाद्यते' जो बनाया जाय, वह अर्थ है इसलिये वह कार्य है और जो 'द्रवति गच्छति इति द्रव्यं' जो प्राप्त कर वह द्रव्य है, यह कारण है । जहां पर द्रव्य ही अर्थ हो अर्थात् कारण ही कार्य हो-कारण और कार्य दोनों एक ही हों भिन्न न हों वह द्रव्यार्थिक है। “यहां पर यह शंका न करनी चाहिये कि कारण और कार्यके आकारमें भेद है इसलिये वे एक नहीं हो सकते क्योंकि जिसप्रकार अंगुलि और उसके पर्व-गांठ दोनों अंगुलिस्वरूप ही हैं अंगुलिसे भिन्न नहीं उसीप्रकार | कारण और कार्य दोनों एक स्वरूप हैं, भिन्न नहीं।" तथा जिसकी चारो ओरसे उत्पत्ति हो वह पर्याय है। जिसका अर्थ पर्याय ही हो द्रव्य न हो वह पर्यायार्थिक नय है क्योंकि अतीतकालका द्रव्य विनष्ट
४५२.