Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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লভল
को भी भिन्न होने के कारण उनका आपस में संबंध नहीं हो सकता इसलिये वहाँपर लिंगव्यभिचार युक्त है । यदि इस लिंगव्यभिचारके परिहारकेलिये वैयाकरण यह कहें कि लिंग के भेदसे दो अभिन्न पदार्थों का भेद मानना निरर्थक है क्योंकि लोकव्यवहार से लिंगभेद पदार्थोंका भेदक नहीं होता इसलिये 'पुष्यं तारका' यहांपर दोनों शब्दों का संबंध होनेसे लिंगव्यभिचार दूर हो जाता है । सो ठीक नहीं । यदि लिंगभेद होनेपर भी पदार्थ एक समझे जांयेंगे तो 'पटः कुटी' यहांपर पट और कुटीको भी एक कहना पडेगा क्योंकि पुष्य और तारकाके समान यहाँपर भी लिंग भेद है एवं लिंग भेद रहते भी पुष्य और तारकाको जिसप्रकार एक माना जाता है उसीप्रकार पट और कुटीको भी एक मानना चाहिये । इसरीतिसे लिंग भेद रहते भी लोक व्यवहारसे दोनों पदार्थ एक हैं यह जो लिंगव्यभिचारकेलिये वैया करणोंका परिहार है वह ठीक नहीं । तथा
'आपऽभः' यहांपर अप शब्द नित्य बहुवचनांत है और अंभः शब्द एक वचनांत है । वचनके भेदसे पदार्थों का भी भेद हो जाता है इसलिये यहांपर संख्या व्याभिचार दोष है । परन्तु वैयाकरणों का यहां मानना है कि जिसप्रकार गुरु आदि, पदार्थों का भेद बतलानेवाले हैं, भेद करनेवाले नहीं उसी प्रकार संख्याभेद भी पदार्थों के भेदका बतलानेवाला है करनेवाला नहीं इसलिये 'आपडमः' यहां पर संख्या भेद रहते भी पदार्थोंका भेद न होनेसे आपस में संबंध हो सकता है अतः अप और जल दोनोंका अभेद होनेसे यहां संख्या व्यभिचार दोष दूर हो जाता है ? सो भी ठीक नहीं। यदि संख्या के भेद रहते भी पदार्थ एक माने जायगे तो घट संस्तव ( 2 ) ( स्तवन ) ये पदार्थ एक हो जायगे क्योंकि 'आपोंऽभः' के समान यहां पर भी संख्याभेद है एवं संख्याभेद रहते भी जिस तरह उन दोनों पदार्थोंको एक माना है ऐसा
अध्याय
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