Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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है प्रदेशी कहनेसे 'परमाणुको बहुप्रदेशी कहना' स्वजात्यसद्भूतव्यवहारनयका विषय है । जिसनयके द्वारा
विजातिसंबंधी असद्व्यवहार होता हो वह विजात्यसद्भूतव्यवहार है । जिसमकार मतिज्ञान मूर्तिक । द्रव्यसे उत्पन्न हुआ है इसलिये मूर्तिक है । यहाँपर विजातीय मूर्तिकके संबंधसे अमूर्तिक की जगह, मूर्तिक कहनेसे मतिज्ञानको मूर्तिक वतलाना विजात्यसद्भूत व्यवहारनयका विषय है । एवं जिस नयके १ द्वारा स्वजाति विजाति संबंधी असत् व्यवहार हो वह स्वजातिविजात्यसद्भूत व्यवहारनय है । जिस तरह ज्ञान ज्ञेयमें रहता है। यहांपर ज्ञेयसे जीव अजीव दोनों प्रकारके ज्ञेय पदार्थों का ग्रहण है। उनमें जीव पदार्थ ज्ञानका सजातीय है और अजीव पदार्थ ज्ञानका विजातीय है दोनोंको ज्ञानका आधार कहना स्वजातिविजात्यसद्भूत व्यवहारनयका विषय है।
उपचरितासद्भूतव्यवहारनयके भी स्वजात्युपचरितासद्भूत व्यवहार १ विजात्युपचारितासद्भुत व्यवहार २ और स्वजातिविजात्युपचरितासद्भूत व्यवहार ३ ये तीन भेद हैं । जिसनयके द्वारा स्व
जातिसंबंधी आरोपित असत् व्यवहार हैं वह व्यवहार उपचरितासद्भुतव्यवहार है जिसप्रकार पुत्र र स्त्री आदि मेरे हैं। यहांपर स्त्री पुत्र आत्माकी अपेक्षा स्वजातीय हो । उनको मेरा कहना स्वजातीय
आरोपित असत् है इसलिये वह स्वजात्युपचरितासद्भूत व्यवहारनयका विषय है । जिसके द्वारा विजातिसंबंधी आरोपित असत् व्यवहार हो वह विजात्युपचरितासद्भूत व्यवहारनय है जिसप्रकार है है व आभरणं आदि मेरे हैं। यहांपर वस्त्र आभरण आदि अचेतन पदार्थ आत्माके विजातीय हैं । उनको
मेरा कहना विजातीय आरोपित असत् है इसलिये वह विजात्युपचारितासद्भूत व्यवहार नयका विषय है १९८ ॐ है। एवं जिसनयके द्वारा स्वजाति विजाति दोनों संबंधी आरोपित असत् व्यवहार हो वह स्वजाति
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