Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
* का सूक्ष्मकाय योगमें रहना प्रसिद्ध है उसीप्रकार गोशब्दके यद्यपि वाणी पृथ्वी आदि अनेक अर्थ हैं || तो भी दूसरे दूसरे अर्थोंका वाचक न होकर वह गाय शब्दमें ही रूढ है।समभिरूढ नया रूढ पदार्थको
ही विषय करता है इसलिये गो शब्दके केवल गाय ही अर्थको प्रकाशित करना यह समभिरूढ नयका | | विषय है । यहांपर यह अवश्य समझ लेना चाहिये कि सोती उठती बैठती चलती किसी भी हालतमेंम चाहे गाय हो वह सव अवस्थावाली गाय समभिरूढ नयका विषय है।
___अथवा शब्दोंका जो प्रयोग किया जाता है वह अर्थ ज्ञान के लिये किया जाता है यदि वह अर्थ ) IS ज्ञान एक ही शब्दके प्रयोगसे सिद्ध हो जाय तो फिर दूसरे पर्याय शब्दका कहना व्यर्थ है । यदि यह || कहा जाय कि एक अर्थके प्रतिपादन करनेवाले अनेक शब्द भी होते हैं इसलिये अर्थ एक ही रहता है | है। परंतु शब्द भेद वहां रहत उसका यह उचर है कि यदि शब्द भेद होगा तो अर्थभेद भी नियमसे है
होगा क्योंकि जितने शब्द भेद हैं उतने ही उनके अर्थ हैं' यह नियम है । जिसतरह यद्यपि इंद्र शक पुरंदर आदि शब्द एक ही शचीपति-इंद्र अर्थके कहनेवाले हैं तथापि परमैश्वर्यका भोक्ता होनेसे इंद्र, सामर्थ्यवान होनेसे शक और पुरविदारण करनेसे पुरंदर इसप्रकार उन भिन्न भिन्न शब्दोंके भिन्न भिन्न
अर्थ हैं। इसरीतिसे पर्यायोंके अनुसार इंद्र शब्दके अनेक अर्थ रहते भी वह रूढ इंद्र (शचीपति) अर्थ IS में ही है और इस रूढ अर्थको ही समभिरूढ नय विषय करता है। यहांपर यह वात समझ लेनी चाहिये
कि चाहें इंद्र परमैश्वर्यका भोग करे या न करे किसी भी हालत हो तब भी वह समभिरूढ नयका विषय है।
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१जित्तियमित्ता सदा चिचियमिचाणि होति परमत्याः । यावन्मात्राः शन्दाः तावन्मात्राः परमार्था भवंति।'
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