Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
अध्याय
१
.
BriSTORISASTRORMALEBRLECREATERRORIES
___ अथवा-जो पदार्थ जहां सर्वथा मौजूद है वहींपर प्रधानतासे रहनेके कारण समभिरूढ कहा जाता है। जिसतरह किसीने पूछा कि-भाई ! तुम कहां रहते हो ? उचर मिला-हम अपनी आत्मामें निवास करते हैं । क्योंकि प्रधानतासे आत्माका रहना आत्मामें ही है दूसरे पदार्थों में उसका रहना नहीं
हो सकता यदि अन्य पदार्थका अन्य पदार्थमें भी रहना माना जायगा तो ज्ञान आदि वा रूप आदि । % गुणोंका रहना भी आकाशमें मानना पडेगा इसलिये अन्य पदार्थका अन्य पदार्थमें रहना नहीं हो हूँ सकता । अपना अपनेमें ही रहना हो सकता है । इसरीतिसे प्रधानतासे आत्माका रहना आत्मामें ही हूँ है रूढ है इसलिये दूसरे दूमरे पदार्थों को छोडकर प्रधानतासे एक पदार्थ-अपनेमें, ही रहनेके कारण है आत्मा समभिरूढ नयका विषय है। एवंभूतनयका लक्षण
येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसाययतीत्येवंभूतः॥११॥ जो पदार्थ जिस स्वरूप अर्थात् अर्थ क्रियासे जिससमय परिणत हो उसका उसीस्वरूप अर्थक्रिया : ६ परिणामसे निश्चय करना एवंभूत नयका विषय है । जिसतरह इंद्र शब्दका अर्थ परमेश्वर है जिससमय 8 वह परमैश्वर्यका भोग कर रहा हो उसीसमय उसको इंद्रकहना यह एवंभूतनयका विषय है किंतु जिसका केवल नाममात्र इंद्र है वा जहाँपर किसी पदार्थमें इंद्रकी स्थापना है वा जो इससमय इंद्र नहीं आगे हैं जाकर इंद्र होनेवाला है वह समभिरूढ नयका विषय नहीं क्योंकि उपर्युक्त तीनों अवस्थाओंमें परमैश्वर्य है का भोग नहीं हो रहा है। इसीप्रकार अन्य शब्दों में भी जिस जिस क्षणमें उनकी जिस जिस अर्थ क्रिया है का परिणमन हो रहा है उस उस क्षणके उस उस परिणमनकी अपेक्षा एवंभूतनयकी योजना कर लेनी चाहिये यदि अर्थक्रियाकी परिणतिका दूसरा दूसरा काल होगातो वे एवंभूतनयके विषय नहीं हो सकते।
४९.