Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
अमाप
आपसमें भिन्न भिन्न होती है उनसे किसी भी पदार्थकी उत्पचि नहीं हो सकती। बौद्ध लोग रूप परमाः | Pाणुओंको सर्वथा भिन्न भिन्न मानते हैं। जो पदार्थ भिन्न भिन्न होते हैं, उनकी सामर्थ्य भी भिन्न हीरहती या है इसलिए आपसमें रूपपरमाणुओंका संबंध न होनेके कारण उनमें घटपट आदि कार्योंके उत्पन्न करनेकी | ||| सामर्थ्य नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि रूपपरमाणुओंमें घट पट आदिकी उत्पत्तिकेलिए । ६|| संबंध आत्मा उत्पन्न कर देगा इसलिए रूपपरमाणुओंसे घट पट आदि कार्योंकी उत्पचि हो सकती है | हूँ कोई दोष नहीं । सो भी अयुक्त है। क्योंकि क्षणिकवादी बौद्धोंके मतमें आत्मा पदार्थ सिद्ध हो ही नहीं |5 | सकता। जब आत्मा कोई पदार्थ नहीं तब रूपपरमाणुओंमें संबंध भी सिद्ध नहीं हो सकता । इस |
रीतिसे बौद्धोंका मानना भी वस्तुस्वरूपसे विपरीत है। यह प्रचलित और मुख्य मुख्य सिद्धांतोंकी | BI अपेक्षा मूलकारणोंमें विपरीतता बतलाई है परंतु जिसतरह पिचदोषके तीव्र उदयसे जिस पुरुषकी |
जीभका स्वाद बिगड गया है उसको मीठा भी कडवा लगता है उसीप्रकार मिथ्यादर्शनके उदयसे बहुतसे | अन्य वादियोंने भी सत् पदार्थको असत् और असत्को सत् मान रक्खा है इसलिए वस्तुखरूपसे सर्वथा विरुद्ध होनेके कारण उनका भी उसप्रकारसे मानना विपरीत है। इसरीतिसे जब प्रवादियोंकी कल्प-5 नाओंके भेदसे वा कायाँकै मूलकारणों में विवादसे जब विपर्ययपना सिद्ध है तब वादीने जो यह शंका 5 की थी कि “जिसप्रकार मतिज्ञान आदि रूप आदि पदार्थोंको विषय करते हैं उसीप्रकार कुमति आदि । भी विषय करते हैं फिर मिथ्यादृष्टिके मति आदि तीन ज्ञानोंको जो विपरीतज्ञान बतलाया है वह ठीक नहीं-उनमें विपरीतता किसी भी कारणसे नहीं हो सकती" उसका अच्छी तरह खंडन हो गया ॥३२॥ ४८ - सम्यग्ज्ञानके लक्षण भेद और विषय आदिका वर्णन कर दिया गया उसके बाद क्रमप्राप्त चारित्र
AAAAAAEENDRAISA
-
-
MAASASABASSI