Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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संसारका व्यवहार नहीं हो सकता इसलिये वह द्रव्य जीव और अजीव है यह व्यवहारसे कहना पडता है। तथा संग्रह नयका विषय जीव और अजीव है। वहां पर जीवके देव नारक आदि भेद माने विना संसारका व्यवहार नहीं हो सकता इसलिये लोक व्यवहारकी सिद्धिके लिये जीव द्रव्यके देव नारक आदि भेद.व्यवहारसे मानने पड़ते हैं। अजीवके घट पट आदि भेद माने विना भी संसारका व्यवहार नहीं चल सकता इसलिये उप्तके घट पट आदि भेद व्यवहारनयसे मानने पड़ते हैं । तथा काथकाढा दवा है यहां पर काथ पदार्थ संग्रहनयका विषय है परंतु सामान्य पदार्थ व्यवहारका विषय नहीं है हो सकता एवं सामान्य विशेषस्वरूप ही होता है इसलिये व्यवहारनय से काथ पदार्थ के न्यग्रोधके फल आदि भेद मानने पड़ते हैं। यहां पर यह शंका न करनी चाहिये कि काथ पदार्थके न्यग्रोधके फल आदि अनंत भेद हैं, इकट्ठे नहीं किये जा सकते इसलिये वे व्यवहारके विषय कैसे हो सकते हैं ?
क्योंकि उनका इकट्ठा करना तो प्रभू चक्रवर्तीकी भी सामर्थ्यसे वाह्य है-वह भी नहीं कर सकता परंतु ६ संग्रहनयके विषयभूत काथ पदार्थके भेद होनेकी उन सबमें सामर्थ्य है-न्यग्रोधके फल आदि सभी कार्थे हूँ पदार्थक भेद हो सकते हैं इसलिये वे सब व्यवहारनयके विषय हैं। तथा नाम स्थापना द्रव्य ये तीन
निक्षेप संग्रात्मक हैं उनसे संग्रहात्मक वस्तुका ग्रहण होता है उनसे भिन्न भिन्न व्यवहार नहीं हो सक्ता है क्योंकि वे तीनों ही जातिवाचक हैं व्यक्ति वाचक नहीं है इसलिये व्यवहारकेलिये वर्तमान पर्याय भाव
निक्षेप ही समर्थ है उसीका यहां ग्रहण है। इसरीतिसे इस व्यवहारनयका वहांतक विषय समझना चाहिये ॐ जहांतक फिर किसीप्रकारका विभाग न हो सके।
. ...: ' . सूत्रपातवद्दजुसूत्रः॥७॥
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