Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
बारा मापा १५०
और उसके कारणोंका उल्लेख है वहीं पर चारित्रका वर्णन उपयुक्त है। यदि यहां पर भी चारित्रका वर्णन किया जायगा और जहां पर मोक्ष और ज्ञानके कारणोंका वर्णन है वहां पर भी आवश्यक समझ चारित्रका वर्णन किया जायगा तब दो जगह उसके वर्णनमें ग्रंथ व्यर्थ वढ जायगा इसलिये यहां पर उसका वर्णन अधिक उपयोगी न होनेके कारण वहीं पर उसका वर्णन करना ठीक है । यदि यहांपर भी । उसका वर्णन किया जायगा तो जीवादि पदार्थ भी विवेचनीय ठहरेंगे उनका विवेचन भी करना पडेगा।
. मतिज्ञान आदिके भेदसे प्रमाणोंका वर्णन कर दिया गया। प्रमाणके एक देशको ग्रहण करनेवाले 8 नय हैं अब उनके वर्णन करनेका क्रम प्राप्त है क्योंकि 'प्रमाणनयैरधिगमः" सूत्रकारके इस वचनसे 6
प्रमाणके वर्णनके वाद नोंके वर्णनका ही क्रम है इसलिये अब नयोंका वर्णन किया जाता है। सूत्रकार हूँ है मुख्य मुख्य नयों के नाम गिनाते हैं
नैगमसंग्रहव्यवहार सूत्रशब्दसमभिरूढेवभूता नयाः॥३३॥ । अर्थ-नैगम संग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र शब्द समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं। द वृत्ति-उपर कह दिया गया है कि शब्द संख्याते हैं इसलिये शब्दोंकी अपेक्षां नयों के एक आदि संख्याते
भेद हैं। यदि अत्यंत सूक्ष्मरूपसे नयोंका भेद बतलाया जाय.तो उनके स्वरूपका अच्छीतरह ज्ञान नहीं हो सकता। यदि अत्यंत विस्तारसे उनके भेदोंका निरूपण किया जाय तो अल्पज्ञानी मनुष्य उलझनमें पड जायगे इसलिये उनका उपकार नहीं हो सकता इसलिये हर एक मनुष्य सुलभतासे नयोका स्वरूप समझ ले इस कारण सामान्यरूपसे सात भेद बतलाकर उनके स्वरूपका वर्णन किया गया है। यहां पर है
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