Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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तरा० माषा
अध्याय
१५९
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बुद्धि, नाम, अनुकूल प्रवृति इन चिन्होंकी समानता रखनेवाला जो सादृश्य है वही जाति है अर्थात् जिन पदार्थोंकी प्रतीति समान होगी; नाम भी समान होगा, अनुकूल प्रवृचि भी समान होगी ऐसे पदार्थों के समूहका नाम जाति है । अथवा जहां स्वरूपका अनुगम है जिसप्रकार गोत्व स्वरूप समस्त संसारकी गौऑमें रहता है इसलिये वह जाति है । वह जाति चेतन अचेतन आदि पदार्थ स्वरूप है चेतन आदि पदार्थोंसे भिन्न नहीं। तथा उसकी प्रवृचिमें कारण गोत्वं घटत्व द्रव्यत्व सत्व आदि अनेक ॐ शब्द हैं इसलिये जहां जो शब्द होगा उसीके अनुसार उसका नाम भी भिन्न होगा तथा प्रवृति भी । उसी नियत शब्दके अनुसार होगी। वार्तिकमें जो अविरोध शब्द है उसका अर्थ स्वरूपसे न चिगना
है । 'स्वा जातिः स्वजातिः स्वजात्या अविरोधः, स्वजात्यविरोधः, तेन' यह संग्रहके लक्षणमें जो स्वजात्य- है। विरोध शब्द है उसका समाप्त है । एकत्वोपनयका अर्थ एकत्वका उपचार है । इसरीतिसे अपनी जातिके ,
अविरोध होनेपर एकत्व रूपसे जो समस्त भेदोंका ग्रहण कर लेना है उसका नाम संग्रह नय है। यह | संग्रहनयके लक्षणका स्पष्ट अर्थ है । संग्रहके सत् द्रव्य घट आदि उदाहरण हैं । 'सत्' ऐसा उच्चारण करने पर द्रव्य पर्याय और उसके भेद प्रभेद सब सत्तासे अभिन्न हैं इसलिये एक सत्त्व धर्मसे उन सवका ग्रहण हो जाता है। 'द्रव्य' ऐसा उच्चारण करने पर जीव अजीव और उनके भेद प्रभेद जितने भी द्रव्य कहे जानेवाले हैं उन सबमें द्रव्यत्व धर्म अभेद रूपसे रहता है-जीव आदि कोई भी द्रव्यस्वसे
१ नैयायिक वैशेषिक दार्शनिकोंने गोत्व प्रादि जातियां स्वतंत्र मानी हैं वे व्यक्तियोंसे भिन्न सदा'ध्यापकरूपसे रहती हैं परंतु ऐसी जातियोंकी सिद्धि नहीं बनती अनेक-षण भाते हैं। इसलिये जो गौका पाकार है वही गोत्व जाति है मनुष्यका प्राकार है
४५८ वही मनुष्यत्व जाति है, उसीसे समान आकारवाले सब एक जातिवाले समझे जाते हैं।
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