Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
वारा भाषा
नहीं कहा जा सकता। इसरीतिसे जब केवलज्ञानके साथ साथ क्षायोपशमिक ज्ञान-मतिज्ञान आदिका ||5|| भी होना युक्ति सिद्ध है तब सूत्रमें 'आचतुभ्यः' इस पदसे एक साथ एक आत्मामें मतिज्ञान श्रुतज्ञानको ||६||
लेकर चार ही ज्ञान होते हैं यह नियमस्वरूप कथन विरुद्ध है ? सो ठीक नहीं । जो स्थान सब जगह || ४२७
शुद्ध हो चुका है वहां पर कोई भाग अशुद्ध नहीं कहा जा सकता उसीप्रकार जब समस्त ज्ञानावरण || कर्मका निर्मूल नाश हो चुका है-जरा भी अंश नाशकेलिए वाकी नहीं है तब वहां पर उसका क्षायोपशम कहना बाधित है । ज्ञानावरण कर्मके सर्वथा नाश करने पर केवलज्ञान होता है इसलिये जिस
आत्मामें उसका उदय है उसमें मतिज्ञान आदि क्षयोपशामिक ज्ञानोंका रहना नहीं हो सकता। इसलिये ४ा एक साथ एक आत्मामें मतिज्ञानको आदि लेकर चारतक ज्ञानोंका जो नियम है वह निर्वाध और ६ हानिर्दोष है । यदि फिर यहांपर यह शंका की जाय कि
इंद्रियत्वादिति चेन्नार्थानवबोधात् ॥९॥ पंचेंद्रिया असंज्ञिपंचेंद्रियादारभ्य आअयोगकेवलिन इति, अर्थात असंज्ञी पंचेंद्रियसे लेकर अयोग केवलीपर्यंत सव जीव पंचेंद्रिय हैं । यह शास्त्रका वचन है। जिनके केवलज्ञान हैं वे भी जब पंचेंद्रिय हैं ||
और उनके पांचों इंद्रियां मौजूद हैं तब इंद्रियोंके कार्य मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिक ज्ञान होने चाहिये। क्योंकि समर्थ कारण इंद्रियोंके रहते कार्य ज्ञान अवश्यंभावी हैं। इसलिये केवलज्ञानके अस्तित्वकालमें | मतिज्ञान आदि नहीं हो सकते यह कहना निर्मूल है ? सो ठीक नहीं । तुमने आर्ष रहस्यको नहीं समझा। है आपमें बतलाया है कि-सयोगकेवली और अयोगकवलीको जो पंचेंद्रिय वतलाया है वह द्रव्येंद्रिय की अपेक्षा है, भावेंद्रियकी अपेक्षा नहीं क्योंकि जहांपर भावेंद्रियका अस्तित्व है वहांपर समस्त ज्ञाना
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