Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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त०रा०
भाषा
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में रहते हैं उससमय मिथ्याज्ञान हो जाते हैं इसलिये उन्हें सूत्रमें मिथ्याज्ञान कहा गया है। सामान्य रूप से विपर्ययका अर्थ मिथ्याज्ञान है तो भी संशय विपर्यय और अनध्यवसाय इन तीनों प्रकार के ज्ञानों का है यहां ग्रहण है । सूत्रमें जो 'च' अव्ययका पाठ है उसका अर्थ समुच्चय है और उससे सूत्रमें मुख्य और व्यवहार दोनों प्रकारके सम्यक्त्वोंका ग्रहण है । यदि 'च' शब्दका उल्लेख सूत्रमें न होता तो मतिज्ञान आदि तीनों ज्ञान, मिथ्याज्ञान ही हैं यही अर्थ होता । यदि यहां पर यह शंका की जाय कि 'मतिज्ञान आदि विपरीत ही ज्ञान हैं' यदि यह निर्धारण सूत्र के अंदर होता तब तो 'च' शब्दका उल्लेख सार्थक समझा जाता क्योंकि उससे सम्यक्त्वके ग्रहण होनेपर 'मतिज्ञान आदि मिथ्याज्ञान ही होते हैं इस सिद्धांतविरुद्ध नियमकी जगह वे मिथ्या भी होते हैं और सम्यक् भी होते हैं यह वास्तविक अर्थ होता परंतु 'मतिज्ञान आदि विपरीत ही होते हैं' ऐसा नियम सूत्रमें है नहीं, इसलिये 'च' शब्द के उल्लेख के विना भी जब यह अर्थ हो सकता है कि मतिज्ञान आदि तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान भी हैं और सम्यग्ज्ञान भी है तब 'च' शब्दका उल्लेख करना व्यर्थ ही है ? सो ठीक नहीं । यदि च शब्दके विना भी 'मतिज्ञान | आदि तीनों ज्ञान मिथ्यज्ञान भी हैं और सम्यग्ज्ञान भी हैं' सूत्रका यह अर्थ हो जाता है तब सूत्र में-जो'विपर्यय' शब्द है उसका मिथ्याज्ञान अर्थ है और 'च' शब्दसे संशय और अनध्यवसायका ग्रहण है। अर्थात् मतिज्ञान आदिक संशयादि स्वरूप भी हैं इस अर्थके करने में 'च' शब्दका उल्लेख ही प्रधान कारण है इसलिये 'च' शब्दका उल्लेख व्यर्थ नहीं । तथा
तत्र त्रिघापि मिथ्यात्वं मतिज्ञाने प्रतीयते । श्रुते च द्विविधं बोध्यमवधौ संशयाद्विना ॥ १२ ॥
अध्याप
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