Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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कही जा चुकी है इसलिये उपयुक्त प्रतीति और नामका व्यवहार समवाय संबंधके आधीन नहीं हो सकता । तथा
सचाके सम्बन्धसे द्रव्यादिका 'सत' व्यवहार हो जाय परन्तु सचाका 'सत' व्यवहार कैसे होगा | | यदि यह कहा जायगा कि किसी दूसरी सचाके संबंधसे होगा तो अनवस्था दोष होगा क्योंकि वहांपर
भी यह प्रश्न उठेगा कि उस दूसरी सत्चाका कैसे सत व्यवहार होगा तो वहांपर अन्य तीसरी सचाके || है|| संबंधसे कहना होगा। यहांपर भी यह प्रश्न उठेगा कि उस तीसरी सचाका 'सत' व्यवहार कैसे है
तो वहां भी कहना पडेगा कि अन्य चौथी सचाके संबंधसे होगा इसप्रकार उत्चरोचर सत्ताकी कल्पनाToll ओंके होनेसे अनवस्था दोष होगा। यदि कदाचित यह कहा जायगा कि द्रव्य आदि पदार्थोंका जो | all सत व्यवहार है वह सचाके संबंधसे होता है परन्तु सचाका जो 'सत्' व्यवहार है सत्ताके सम्बंधके विना 8 ही हो जाता है। वहांपर दूसरी किसी सचाके सम्बंधकी अपेक्षा नहीं रहती इसलिये अनवस्था दोष का नहीं हो सकता। सो भी ठीक नहीं। इसरूपसे अनवस्था दोषका भले ही परिहार हो जाय परन्तु सचा | | के सत व्यवहारको यदि स्वयं माना जायगा तो प्रतिज्ञाभंग दोष तयार है। क्योंक 'सत्' व्यवहार
सचाके संबंघसे होता है, वादी यह प्रतिज्ञा कर चुका है अब यदि सचाके 'सत्' व्यवहारको सचासंबंध | M के विना स्वयं ही मानलेगा तो उपयुक्त प्रतिज्ञा भंग हो जायगी। इसलिये सत्ताका जो संसार में 'सत्' | व्यवहार है वह परसे वा स्वयं दोनों तरहसे बाधित है । यदि यहांपर यह कहा जाय कि- -
प्रत्येक पदार्थमें भिन्न २ शक्तियां होती हैं इसलिये द्रव्य आदिमें तो भिन्न भिन्न निमिचस्वरूप उन शक्तियोंके संबंघसे 'सत व्यवहार होगा और-सचामें बिना किसी अन्य निमित्त के स्वयं सत 'व्यव-18
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