Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
वरण कर्मका क्षय नहीं हो सकता एवं ज्ञानावरणकर्मके निर्मूल क्षयके विना सर्वज्ञपना भी असंभव है। 8 यदि सयोगकेवली और अयोगकेवलीके भावेंद्रियकी सचा मानी जायगी तो उनके ज्ञानावरण कर्मका अध
निर्मूल क्षय न हो सकेगा एवं ज्ञानावरण कर्मके निर्मूल क्षयके विना वे सर्वज्ञ भी नहीं कहे जा सकेंगे || २८९ तथा जहाँपर भावेंद्रियकी सचा है वहीं पर मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिक ज्ञानोंका आविर्भाव होता है,
केवल द्रव्यद्रिय के अस्तित्व कालमें नहीं क्योंके द्रव्योंद्रियकी सचाको निःशक्तिक माना है, वह ज्ञानोंकी . है उत्पचिमें कारण नहीं बन सकती इसलिये जब केवलज्ञानके उदय रहने पर भावेंद्रियका अस्तित्व नहीं है रहता तब केवलज्ञानके साथ कारण भावेंद्रियके अभावमें कार्य मातज्ञानादि नहीं हो सकते अतः 'एक |
आत्मा में एक साथ मतिज्ञान आदि चार ही ज्ञान हो सकते हैं सब नहीं यह वात निर्वाध है । इसप्रकार उपर्युक्त युक्तिपूर्ण कथनसे यह वात सिद्ध हो चुकी कि यदि एक आत्मामें एकसाथ दो ज्ञान होंगे तो 8 मतिज्ञान श्रुतज्ञान ही होंगे। तीन होंगे तो मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान वा मतिज्ञान श्रुतज्ञान मन:पर्ययज्ञान होंगे और चार होंगे तो मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान होंगे किंतु पांचों || ज्ञान एक साथ नहीं हो सकते।
संख्यावचनो वैकशब्दः॥१०॥ . अथवा एकादीनि यहाँपर जो एक शब्द है उसका अर्थ एकत्व संख्या है। जिन ज्ञानोंकी आदिमें |
एक हो वे एकादि हैं यह एकादि पदका अर्थ है । वह इसप्रकार है। श्रुतज्ञान दो प्रकारका है एक अक्षॐ रात्मक दूसरा अनक्षरात्मक । अक्षरात्मक श्रुतज्ञान दो, अनेक और बारह प्रकारका है एवं उपदेशपूर्वक
होता है, यह ऊपर कहा जा चुका है। वह अक्षरात्मक श्रुतज्ञान भाज्य है-किन्हीं जीवोंके होता है किन्हींके
RASHISHASHISHASTROPRESSISTORE
GGESCRISPROACHERECS49
- 50-RECa