Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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- जिस पदका समास किया जाता है उसका विग्रह तो अवयवोंके साथ होता है और समासकाअर्थ । समुदायगत माना जाता है । 'एकादीनि' यह समस्त पद है यहां पर विग्रह तो एक, आदि रूप उस र पदके अवयवोंके साथ है परंतु मतिज्ञान और 'श्रुतज्ञानको लेकर ज्ञान' (भाज्य हैं) यह समासका अर्थ
'एकादीनि' इस समुदायगत है । सूत्रमें जो 'आचतुभ्यः पद है वह इस नियमकेलिए है कि एक साथ एक 8 आत्मामें चार पर्यंत ही ज्ञान होते हैं सब-पांचों नहीं होते । यदि आचतुभ्यः' पद सूत्रमें न होता तो र एक साथ एक जगह पर पांचो ज्ञानोंका विधान हो जाता । यदि यहां पर यह शंका की जाय कि टू पांचों ज्ञानोंका क्यों एक साथ संभव नहीं होता ? उसका समाधान इसप्रकार है
केवलस्यासहायत्वादितरेषां च क्षयोपशमनिमित्तत्वाद्योगपधाभानः ॥७॥ ___पांचों ज्ञानों में केवलज्ञान असहाय ज्ञान है उसे कर्मोंके क्षयोपशमकी सहायताकी अपेक्षा नहीं रहती शेष मतिज्ञान आदि चारों ज्ञानोंको काँके क्षयोपशमकी अपेक्षा रहती है इसलिये वे असहाय नहीं इस रीतिसे ज्ञानोंमें आपसमें विरोध रहनेके कारण वे एक साथ नहीं हो सकते इसलिये सूत्रमें जो 'आचतुर्यः' पद है, वह नियामक और सार्थक है । शंका
___नाभावोऽभिभूतत्वादहनि नक्षत्रवदिति चेन्न क्षायिकत्वात् ॥८॥ ' जिससमय सूर्यका प्रकाश पृथ्वीमंडल पर पडता है उससमय नक्षत्रोंका प्रकाश दब जाता है किंतु ९ वहां यह नहीं कहा जाता कि नक्षत्रोंकी नास्ति ही हो गई है । उसीतरह जिससमय आत्मामें अत्यंत
जाज्वल्यमान केवलज्ञानका उदय होगा उससमय क्षायोपशमिक मतिज्ञान आदिका प्रभाव दब जायगा क्योंकि केवलज्ञान सर्वथा निरावरण ज्ञान है किंतु केवलज्ञानके साथ उनका आस्तत्व ही नहीं है यह
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