Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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व्यवस्था है । यहाँपर आदि शब्दका अर्थ व्यवस्था है। 'भुजंगादयः परिहर्तव्याः भुजंगप्रकारा विषवंत पा] इत्यर्थः सर्प आदि विषवाले जीवोंको दूरसे ही छोड देना चाहिये। यहाँपर आदिशन्दका अर्थ प्रकार
भेद है । 'नद्यादीनि क्षेत्राणि-नदीसमीपानीत्यर्थः' नदीके समीप क्षेत्र हैं, यहॉपर आदि शब्दका अर्थ हा समीप है। ऋगादिमधीते-ऋगवयवमधीते इत्यर्थः ऋग्वेदके कुछ भागको पढता है, यहांपर आदि
शब्दका अर्थ अवयव है। सूत्रमें जो आदि शब्द दिया है उसका भी अर्थ यहां 'अवयव' विवक्षित है। अर्थात् 'एककी प्रथम-परोक्षज्ञानकी आदि-अवयव-मतिज्ञानको आदि लेकर' यह एकादि शब्दका | अर्थ है । अथवा आदि शब्दका अर्थ समीप भी है । मतिज्ञानके समीप श्रुतज्ञान है इसलिये एक शब्दके है। उल्लेखसे मतिज्ञान और आदिके शब्दके उल्लेखसे श्रुतज्ञानको ग्रहण कर मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको आदि लेकर एक आत्मामें एक साथ चार तक ज्ञान होते हैं यह सूत्रका स्पष्ट अर्थ है । शंका
मतेबहिर्भावप्रसंग इति चेन्मानयोः सदाऽव्यभिचारात् ॥ ४॥ आदि शब्दका अर्थ समीप मानकर 'एकस्य आदि एकादिः' ऐसी व्युत्पचिसे प्रथम निर्दिष्ट के | समीपको आदि लेकर यदि यह अर्थ किया जायगा तो प्रथम निर्दिष्ट-भतिज्ञानके समीप श्रुतज्ञान है। इसलिये श्रुतज्ञानको आदि लेकर (एक आत्मामें एक साथ चार ज्ञान होते हैं) यह अर्थ होगा। मतिः ज्ञानको आदि लेकर यह अर्थ न हो सकेगा। इसरीतिसे मतिज्ञान छुट जायगा । सो ठीक नहीं। जिस तरह नारद और पर्वतका आपसमें सहचर सम्बंध है-अव्याभिचारितरूपसे नारद और पर्वत एक साथ रहते हैं, इसलिये नारदका नाम लेनेसे पर्वतका ग्रहण और पर्वतका नाम लेनेसे नारदका ग्रहण हो जाता है उसी तरह मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको भी आपसमें अव्याभिचारतरूपसे सहचारीपना है। ऐसा कोई
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