Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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है। 'रूपिष्ववधे इस सूत्रमें रूप शब्द उपलक्षण है इसलिये रूप शब्दके कहने से उसके अविनाभावी रस
|| गंध आदिका भी वहां ग्रहण है । इस रीतिसे जब रूप शब्दसे रूप रस आदि समस्त अविनाभावी गुणो अध्याप ॥ का ग्रहण है तब जिस तरह रूपद्वारसे पुद्गलके पर्याय अवधिज्ञानके विषय हैं उसीप्रकार रस आदि १५|| द्वारसे भी वे उसके विषय हैं कोई दोष नहीं। शंका-यदि रूप-रस आदि दारोंसे पुद्गलके पर्यायोंको
॥३|| अवधिज्ञान विषय करता है तब पुद्गलोंके तो सब पर्याय अनंते हैं वे सब अवधिज्ञानके विषय कहने । MI पडेंगे। उत्तर
असर्वपर्यायग्रहणानुवृत्तेने सर्वगतिः॥४॥ जिसतरह "देवदचाय गौ र्दीयता, जिनदचाय कंबलः, इति दीयतामित्यभिसंबध्यते” देवदचको || गाय दो और जिनदत्चको कंबल दो, यहां पर 'देवदत्ताय गौर्दीयता' इस वाक्यमें उल्लेख किये गये है हा 'दीयता' शब्दका संबंध उचर वाक्यमें भी माना जाता है उसीप्रकार ‘मतिश्रुतयो' रित्यादि सूत्रमें 'अस
पर्याय' शब्दका उल्लेख है उसका रूपिष्ववधेः' इस सूत्रमें भी संबंध है इसलिये पुद्गलके अनंते पर्याय ॥ अवधिज्ञानके विषयभूत नहीं किंतु पुद्गलको कतिपय पर्यायोंको और जीवके औदयिक औपशमिक क्षायोपशामिक परिणामोंको ही अवधिज्ञान विषय करता है । यहां पर यह शंका न करनी चाहिये कि
१ अजहरस्वार्थलभणयान्यग्राहक, उपलक्षण । अजहरस्वार्यलक्षणा [अपने अर्षको न छोडकर से जो दूसरे पदार्थों का ग्रहण | करना है उसका नाम उपलक्षण है जिस तरह 'काकेभ्यो दधि रक्ष्यना' कौमोंसे दहीकी रक्षा करो । यहाँपर काक शन्द उपलमण है इसलिये जितने भी जीव दहीके विघातक है उन सबका काक शब्दसे ग्रहण है उसीमकार प्रकृतमें रूप' शब्दको भी उपलक्षण मानमेसे जितने उस रूपके भविनाभावी रस गंध आदि गुण हैं उन सबका रूप शब्दसे महण है।
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