Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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| अनंत पर्यायोंको अवधिज्ञान विषय नहीं कर सकता। तथा श्रुतज्ञान भी शब्दकारणक है जिसने शब्द | |६|| होंगे उन्हीको श्रुतज्ञान जान सकता है। शास्त्रोंमें शब्दोंका परिमाण संख्यात माना है और द्रव्यके र पर्याय असंख्याते और अनंते माने हैं इसलिए खुलासा रूपसे पृथक् पृथक् सब वा अनंत पर्यायोंको श्रुतहै ज्ञान भी विषय नहीं कर सकता । गोम्मटसार जीवकांडमें यह कहा भी है
पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागोदु अगाभिलप्पाणं . पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदणिवदो ॥३३३ ॥
प्रज्ञापनीया भावा अनंतभागस्तु अनभिलाप्यानां।
प्रज्ञापनीयानां पुनः अनंतभागाश्रुतनिवद्धः॥३३३॥ अनभिलाप्य पदार्थों के अनंतवें भाग प्रमाण प्रज्ञापनीय पदार्थ होते हैं और प्रज्ञापनीय पदार्थोंके ६ || अनंतवें भाग प्रमाण श्रुतमें निबद्ध हैं। भावार्थ-जो एकमात्र केवलज्ञान द्वारा जाने जा सकते हैं, किंतु र | जिनका वचनके द्वारा निरूपण नहीं किया जा सकता ऐसे पदार्थ अनंतानंत हैं। इसतरहके पदार्थों में है। || अनंतवें भागप्रमाण वे पदार्थ हैं जिनका वचनके द्वारा निरूपण हो सकता है उनको प्रज्ञापनीय भाव कहते है। है। जितने प्रज्ञापनीय पदार्थ हैं उनका भी अनंतवां भाग श्रुतमें निरूपित है । इसरीतिसे यह वात | अच्छीतरह सिद्ध हो गई कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके विषय द्रव्यके कुछ पर्याय हैं, सब वा अनंत पर्याय नहीं शंका
. १ अनमिलाप्य उन्हें कहते हैं जो संकेत आदिके द्वारा भी नहीं जाने जा सकें ऐसेभाव केवलज्ञानद्वारा ही गम्य है।२ प्रज्ञाप&ानीय भाव वे पदार्य हैं जो दिव्यध्वनि द्वारा तो कहे जा सकते है परंतु श्रुत निवद्ध नहीं हैं।
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