Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अर्थ है । शंका-सूत्रमें विषय शब्दका उल्लेख नहीं है इसलिये मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के विषयका' यह अर्थ नहीं हो सकता। यदि यह अर्थ करना ही अभीष्ट है तो सूत्रमें विषय शब्दका उल्लेख करना चाहिये।
तारा. भाषा
उत्तर
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' प्रत्यासत्तेः प्रकृतविषयग्रहणाभि संबंधः॥१॥ किसी सूत्रमें कोई शब्द न हो किंतु उसके पहिलेके सूत्र उस शब्दका उल्लेख किया गया हो तो | 15 योग्यता रहनेपर आगेके सूत्रमें उसकी अनुवृत्ति आ जाती है। 'मतिश्रुतयोरित्यादि' सूत्रमें यद्यपि |
। 'विषय' शब्दका उल्लेख नहीं किया गया है तो भी 'विशुद्ध क्षेत्र स्वामीत्यादि' पाप्त हीके सूत्रमें उसका | उल्लेख है इसलिए समीपतासे विषय शब्दकी अनुवृचि इस सूत्रमें आजाती है इस रीतिसे मतिज्ञान | और श्रुतज्ञानके विषयका संबंध' इत्यादि अर्थ के होने में कोई आपत्ति नहीं। यदि यहाँपर यह शंका की
जाय कि विशुद्धि क्षेत्रेत्यादि सूत्रमें जो विषय शब्द है वह पंचम्यंत है इसलिए मतिश्रुतयोरित्यादि सूत्रमें पंचम्यंत विषय शब्दकी ही अनुवृत्ति आ सकती है षष्ठ्यंत विषय शब्द की अनुवृत्ति नहीं परंतु इस सूत्रों
'मतिश्रुत विषयस्य' यह षष्ठ्यंत विषय शब्द माना है इसलिए यह अयुक्त है ? सो ठीक नहीं। जहां जैसा ७ अर्थ लिया जाता है वहां वैसी ही विभक्तिका विपरिणाम हो जाता है जिस तरह-'उच्चानि देवदचस्य | गृहाणि आमंत्रयस्वैनं देवदचमिति' देवदचके घर ऊंचे हैं उस देवदचको पुकार लो यहाँपर पहिले देव६ दचस्य' यह षष्टयंत देवदचका प्रयोग है फिर अर्थके अनुसार विभक्तिका परिवर्तन कर देवदत् यह द्विती| यांत रक्खा है। इसी तरह 'देवदत्वस्य गावोऽश्वाहिरण्यमाढयो वैधवेयो देवदतः देवदचके गाय घोडा | और सोना चांदी है इसलिए वह धनवान होकर भी विधवाका पुत्र है । यहाँपर भी प्रारंभमें 'देवदचस्य'
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