Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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स०रा० १४९
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ही हो जाता है और उनका आगे कथन किया ही जायगा तब यहां उनका कथन करना पुनरुक्त है। अर्थात् जो एकवार प्रतिपादित हो चुका- उसका फिर प्रतिपादन करना व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं । || मार शिष्योंकी बुद्धिकी अपेक्षा यहां नामादि निक्षेपोंका कथन किया गया है क्योंकि जो पुरुष मेधावी हैथोडा कहनेपर बहुत समझ लेते हैं उनकेलिये तो द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दो ही नय उपयुक्त हैं।नयोंका। जितना विषय है द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकके ही द्वारा वे सब समझ लेते हैं परंतु जो मंदबुद्धि हैं उनमें कोई तो नयोंके तीन भेदोंसे नयोंका समस्त विषय पहिचानते हैं। कोई चार भेदोंसे और कोई कोई पांच आदि अनेक भेदोंसे पहिचानते हैं । नाम आदि जो नयोंके विषय कहे हैं विद्वानोंकी अपेक्षा न भी || उनका कहना उपयुक्त हो तो भी जो पुरुष खुलासारूपसे उनका विषय समझ लेनेमें असमर्थ हैं उनके ॥४॥ समझानेकेलिये नाम आदिका कहना उपयुक्त ही है इसप्रकार अल्पबुद्धि मनुष्योंकी अपेक्षा नाम आदि। के विषय विशेषता होनेसे वे पुनरुक्त नहीं कहे जा सकते । यदि कदाचित् यह शंका हो कि
तच्छब्दाग्रहणं प्रकृतत्वात् ॥३५॥ ऊपरसे सम्यग्दर्शन आदिका प्रकरण चला आरहा है इसलिये नाम आदिके साथ उनका संबंध हो | ही जायगा। अर्थात् नाम स्थापना आदिसे उनके व्यवहारमें किसी प्रकारकी. आपचि नहीं हो सकती इसलिये 'नामस्थापना' इत्यादि सूत्रमें जो सम्यग्दर्शन आदिके ग्रहणकेलिये तत् शब्दका ग्रहण कियागया है वह व्यर्थ है। यदि यहां पर यह शंका उठाई जाय कि
. प्रत्यासन्नत्वाज्जीवादिषु प्रसंग इति चेन्न सम्यग्दर्शनविषयत्वात् ॥ ३६॥ 'अनंतरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वा' अर्थात् जो विलकुल पासमें रहता है उसीका विधान और
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