Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अभ्यास
बारा
भाषा
STANDARDA
इंद्रियाणि पराण्याहुरिद्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुर्बुिद्धेः परतरो हि सः॥१॥ ३९७
अर्थात् पर इंद्रियां हैं । इंद्रियोंसे पर मन है। मनसे पर बुद्धि है और बुद्धिसे परतर आत्मा है। || अवधिज्ञान अपनी उत्पत्तिमें आत्माकी अपेक्षा रखता है इसलिए वह स्वाधीन प्रत्यक्ष है, पराधीन परोक्ष में
नहीं। इस अवधिज्ञानका गोम्मटसार जीवकांडकी अवधिज्ञान प्ररूपणामें विस्तारसे वर्णन है। वहांसे ई विशेष जान लेना चाहिये ॥२२॥
____ अवधिज्ञानका वर्णन कर दिया गया। अब क्रमप्राप्त मनःपर्ययज्ञान है उसका भेदपूर्वक लक्षण 1 सूत्रकार कहते हैं
ऋविपुलमती मनःपर्ययः ॥ २३ ॥ जो ज्ञान परके मन में तिष्ठते हुए रूपी पदार्थोंको जाने वह मनःपर्ययज्ञान है और उसके ऋजुमति और विपुलमति ये दो भेद हैं।
__ऋज्वी निवर्तिता प्रगुणा च ॥१॥ अनिवर्तिता कुटिला च विपुला ॥२॥
मन वचन कायकी सरलता लिए हुए दूसरेके मनमें तिष्ठे हुए पदार्थको जो जाने वह ऋजुमति || मनःपर्ययज्ञान कहा जाता है और परके मनमें तिष्ठनेवाले वचन काय और मनके द्वारा किये गये सरल | और कुटिल दोनों प्रकारके रूपी पदार्थोंका जान लेना विपुलमति नामका मन-पर्ययज्ञान है। जिसकी || मति-(जानना) ऋज्वी-सरल है, वह ऋजुमति नामका मन:पर्ययज्ञान है और जिसकी मति विपुल
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