Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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। सरल और कुटिल दोनों प्रकारकी है वह विपुलमति मनःपर्ययज्ञान है। 'ऋजुमतिश्च विपुलमतिश्च ऋजु
ॐ विपुलमती' यह वहांपर द्वंद्वसमास है । यद्यपि मन:पर्ययज्ञानके ऋजुमति और विपुलमति ऐसे दो भेद पा हैं इसलिये 'ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः' इस सूत्रमें 'ऋजुमतिविपुलमती' इसप्रकार दो मति शब्दोंका 9 १९८ ₹ उल्लेख करना चाहिये परन्तु एक ही मति शब्दके उल्लेख से दोनों मति शब्दोंका अर्थ निकल आता है हूँ है इसलिये एक ही मति शब्दका उल्लेख किया है । इसप्रकार यह मनःपर्ययज्ञान ऋजुमति और विपुलमति है के भेदसे दो प्रकार कह दिया। अब वार्तिककार उसका लक्षण बतलात हैं
मनासंबंधेन लब्धवृत्तिर्मनःपर्ययः॥ ३॥ जिस ज्ञानकी उत्पत्ति वीर्यांतराय और मनःपर्यय ज्ञानावरणका क्षयोपशम एवं अंगोपांग नामक नामकर्मके लाभरूप कारणोंके विद्यमान रहते अपने और पराये मनके संबंधसे होती है उसका नाम मनः' 8 पर्ययज्ञान है । शंका
___ मतिज्ञानप्रसंग इति चेन्नाऽन्यदीयमनोऽपेक्षामात्रत्वादभ्रे चंद्रव्यपदेशवत् ॥४॥ __ जिसप्रकार मन और चक्षु आदि इंद्रियोंके द्वारा चाक्षुष आदि ज्ञान होते हैं और वे मतिज्ञान कहे जाते हैं उसीप्रकार मनःपर्ययज्ञान भी दूसरेके मनकी अपेक्षासे होता है इसलिये वह भी मतिज्ञान ही है मनापर्ययज्ञान कोई भिन्न ज्ञान नहीं ? सो ठीक नहीं । 'अभ्रे चंद्रमसं पश्य' आकाशमें चंद्रमा देखो, जिस प्रकार यहां आकाश शब्दका प्रयोग आपेक्षिक कारण है किंतु जिस तरह चक्षु आदि इंद्रियां चाक्षुष आदि ज्ञानोंकी उत्पादक कारण हैं उस तरह आकाश चंद्रज्ञानका उत्पादक कारण नहीं । उसी प्रकार 'परके मनमें तिष्ठनेवाले रूपी पदार्थको मनःपर्ययज्ञानवाला जातता है' एतावन्मात्र अर्थके द्योतन
RASIRECISISALCASTRA