Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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करा.
भाषा
अनंतके अनंते भेद माने हैं इसलिये कार्माण द्रव्यके जिस अंतिम अनंतवें भागको सर्वावधिज्ञानने विषय कर रक्खा है उस अनंत भागका भी अनंतवां भाग ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानका विषय है और जिस अनंतवें भागको ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानने विषय किया है उसका भी अनंतवां भाग जोकि दूर व्यवहित और सूक्ष्म है वह विपुलमति मनःपर्ययज्ञानका विषय है । इसतरह द्रव्य क्षेत्र और कालकी अपेक्षा विशुद्धि समझ लेनी चाहिये एवं विपुलमति मनःपर्ययज्ञान अत्यंत सूक्षम द्रव्यको विषय करता है इसलिये उसका अत्यंत सूक्षम पदार्थका विषय करना ही भावकी अपेक्षा विशुद्धि है।जो पुरुष विपुलमति मनःपर्ययज्ञानके स्वामी हैं कषायकी उचरोचर मंदतासे निरंतर उनका चारित्र प्रवर्धमान-वढा हुआ, रहता है एवं कर्मोंके प्रकृष्ट क्षयोपशमकी विशुद्धता रहती है इसलिये वह अप्रतिपाती-छूटता नहीं, है औरऋजुमति मनःपर्ययज्ञानके स्वामियों के कषायोंका उद्रेक रहने के कारण दिनोंदिन चारित्रहीयमानकम होता चला जाता है, इसलिये वह प्रतिपाती है बीचमें छूट जाता है इसरीतीसे द्रव्य क्षेत्र आदिकी विशुद्धता और प्रतिपाति अप्रतिपातीपनेसे ऋजुमति और विपुलमतिमें विशेषता है ॥२४॥
मनःपर्ययज्ञानके ऋजुमति और विपुलमति भेदोंकी अपेक्षा विशेषता हमने जान ली परन्तु अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें आपसमें क्या विशेष है ? इस बातको सूत्रकार बतलाते हैं
विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः ॥२५॥ विशदि क्षेत्र स्वामी और विषयकी अपेक्षा अवधितान और मन:पर्ययवान में विशेषता है। अर्थात अवधिज्ञानकी अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान-विशुद्ध थोड़े क्षेत्रवाला, थोड़े स्वामीवाला और सूक्ष्म विषयवाला है अवधिज्ञान कम विशुद्धिवाला बहुत क्षेत्रवाला बहुत स्वामीवाला और स्थूलविषयवाला है.।