Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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AURA
सूत्र जो विशुद्धि शब्द है उसका अर्थ उज्ज्वलता है । जहाँतक के विद्यमान पदार्थों को जाने वह क्षेत्र है | ज्ञानोंका प्रयोग करनेवाला स्वामी है और विषय नाम ज्ञेयका है । शंका
अवधिज्ञानान्मनः पर्ययस्य विशुद्धयभावोऽल्पद्रव्यविषयत्वादिति चेन्न भूयः पर्यायज्ञानात् ॥ १ ॥ शास्त्रोंमें मन:पर्ययज्ञानकी अपेक्षा अवधिज्ञानका विषय अधिक द्रव्य बतलाया गया है और मनःपर्ययज्ञानका विषय. अल्प द्रव्य बतलाया है क्योंकि सर्वावधि ज्ञानके विषयभूत रूपी द्रव्यका अनंतव भाग मन:पर्ययका द्रव्य बतलाया है तथा यह प्रसिद्ध वात है कि जिसका विषय अधिक द्रव्य होता है वह अधिक विशुद्ध और जिसका विषय कम द्रव्य होता है वह अल्प विशुद्ध कहा जाता है इसलिये अधिक द्रव्यको विषय करने के कारण मन:पर्ययज्ञानकी अपेक्षा अवधिज्ञान अधिक विशुद्ध है और अल्प द्रव्यको विषय करनेके कारण मन:पर्ययज्ञान अल्प विशुद्ध है। सो ठीक नहीं । संसारमें एक मनुष्य तो ऐसा है जो समस्त शास्त्रोंका व्याख्यान तो कर रहा है परंतु उनका एक देशरूप से ही व्याख्यान करता है, कहां क्या लिखा है, किसरूपसे लिखा है इसतरह समस्तरूपसे उनके अर्थका व्याख्यान नहीं कर सकता - वैसा करने में असमर्थ है। दूसरा मनुष्य ऐसा है कि शास्त्रका तो एकका ही व्याख्यान कर रहा है परंतु प्रत्येक अर्थको जुदा जुदा दर्शा कर समस्तरूपसे अर्थके कहने में समर्थ है । इन दोनों प्रकार के मनुष्यों में पीछेका मनुष्य विशेष विशुद्धज्ञानका धारक समझा जाता है उसीप्रकार यद्यपि मन:पर्ययज्ञान ) की अपेक्षा अवधिज्ञानका विषय अधिक द्रव्य है परंतु वह उसे एकदेश स्थूलरूप से जानता है और मनःपर्ययज्ञानका विषय अवधिज्ञान के विषयका अनंतवां भाग है तो भी वह बहुतसी रूप आदि पर्यायों के साथ समस्त रूपसे जानता है इसलिये अवधिज्ञानकी अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान ही अधिक विशुद्ध है ।
শেতল গুন গু
अध्याग
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