Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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कोई कारण है नहीं इसलिये उसके अप्रतिपात है । विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी संयमशिखर से नहीं गिरता | इसलिये वह अप्रतिपात है । 'विशुद्धिश्व अप्रतिपातश्च विशुद्धयप्रतिपातौ ताभ्यां विशुद्ध प्रतिपाताभ्यां | तयोर्विशेषस्तद्विशेषः' यद्द सूत्रमें रहनेवाले समस्त पदों की व्युत्पत्ति है। शंका- 'ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः' इसी सूत्र से ही ऋजुमति और विपुलमतिका विशेष स्पष्ट है फिर विशुद्ध प्रतिपाताभ्यामित्यादि सूत्रका क्यों आरंभ किया गया ? उत्तर-
विशेषांतरप्रतिपत्त्यर्थं पुनर्वचनं ॥ १ ॥
पहिले सूत्रमें जो ऋजुमति और विपुलमतिका विशेष वतलाया गया है वह साधारण है । सर्वसाधारणको उससे संतोष नहीं हो सकता इसलिये खास विशेषता बतलाने के लिये विशुद्धयप्रतिपाताभ्या मित्यादि सूत्रका आरंभ किया गया है। शंका-
च शब्दप्रसंग इति चेन्न प्राथमकल्पिकभेदाभावात् ॥ २ ॥
जिसप्रकार मन:पर्ययज्ञानके ऋजुमति और विपुलमति भेद हैं उसीप्रकार उसके ही विशुद्धि और अप्रतिपात भी भेद हैं यदि यही अभिप्राय है तब तो इससूत्रमें च शब्दका उल्लेख करना चाहिये ? सो ठीक नहीं । जिसतरह मन:पर्ययज्ञानके ऋजुमति और विपुलमति भेद हैं उसीप्रकार यदि विशुद्धि और अप्र| तिपात भी मन:पर्ययज्ञानके भेद होते तत्रतो सूत्रमें चशब्द कहना अयुक्त होता । सो तो है नहीं किंतु वे तो ऋजुमति और विपुलमतिके भेद नहीं हैं किंतु स्वरूप विशेष है इसलिये सूत्रमें चशब्द के कहने की कोई आवश्यकता नहीं । विशुद्धि में ऋजुपति मन:पर्ययज्ञानकी अपेक्षा विपुलमति मन:पर्ययज्ञान द्रव्य | क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षा अधिक विशुद्ध है । और वह इसप्रकार है-
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ঙल
अध्याय
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४०४.