Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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बरा० पापा
५/ पदार्थका व्यक्त मन करि चिंतवन किया गया है वा अव्यक्त मन करि चितवन किया गया है अथवा 8 ६ नहीं चितवन किया गया है आगे जाकर चितवन होगा उन सब प्रकारके पदार्थों को विपुलमति मनः-टू हूँ पर्ययज्ञानी जानता है। यह द्रव्य और भावकी अपेक्षा विपुलमति मनापर्ययज्ञानके विषयका निरूपण है
कालकी अपेक्षा विपुलमति मन:पयेयज्ञानी जघन्य रूपसे सात आठ भवों के गमन आगमनको * जानता है और उत्कृष्ट रूपसे असंख्यात भवोंके गमन आगमनको जानता है। क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य है रूपसे योजनपृथक्त्व-तीन योजनसे ऊपर और आठ योजनके भीतरके पदार्थोंको जानता है और उत्कृष्ट रूपसे मानुषोत्तर पर्वतके भीतरके पदार्थों को जानता है वाहिरके पदार्थों को नहीं ॥२३॥
ऋजुमति और विपुलमतिके भेदसे दो प्रकारके मनःपर्यय ज्ञानका वर्णन कर दिया गया। अब 8 उन दोनों प्रकारके भेदोंमें आपसमें क्या विशेषता है ? सूत्रकार इसवातको वतलाते हैं
विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तहिशेषः ॥२४॥ . पारणामोंकी विशुद्धता और अप्रतिपात हन दो कारणों से ऋजुमति और विपुलमतिमें विशेषता हूँ है अर्थात्-ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानकी अपेक्षा विपुलमति मनः पर्ययज्ञानमें अधिक विशुद्धता है तथा है ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान बीचमें छूट भी जाता है परंतु विपुलमति मनःपर्ययज्ञान केवलज्ञानके होने तक है रहता है-बीचमें नहीं छूटता।
मनःपर्ययज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम होनेपर जो आत्माकी उज्ज्वलताका होना है उसका नाम विशुद्धि है। प्रतिपातका अर्थ गिरना है। उपशांतकषायी मनुष्य चारित्र मोहनीय कर्मकी उत्कटतासे संयमरूपी शिखरसे गिरजाता है इसलिये उसके प्रतिपात माना है । क्षीणकषायी मनुष्यके गिरनेका हूँ
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