Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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त०रा० भाषा
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पना थोडा भी नहीं इसलिये अवग्रह और ईहा ज्ञान संशयकी जातिके नहीं कहे जा सकते ? सो ठीक नहीं । अवग्रहको तो संशयका जातीय मानना ही पडेगा क्योंकि संशयज्ञानमें दूरसे किसी पुरुषाकार ऊंचे उठे पदार्थ के देखनेसे यह ऊंचा पदार्थ स्थाणु है या पुरुष है ? इसप्रकारका संशय होता ही है रुकता नहीं । उसीप्रकार 'यह पदार्थ ऊंचा है' इस प्रकारके अवग्रह ज्ञानके बाद भी यह पुरुषाकार ऊंचा पदार्थ 'स्थाणु है या पुरुष है' यह संशय भी होता ही है अतः अवग्रहज्ञान संशयज्ञान है इसीलिये तो अवग्रहके बाद ईहा ज्ञानकी अपेक्षा करनी पडती है इस रातिसे जब संशयज्ञानके समान अवग्रह ज्ञान भी संशय में कारण है तब अवग्रहज्ञानको सम्यग्ज्ञानका भेद नहीं माना जा सकता ? सो नहीं । क्योंकिलक्षणभेदादन्यत्वभग्निजलवत् ॥ ८ ॥ अनेकार्थानिश्चितापर्युदासात्मकसंशयस्ता द्वपरीतोऽवग्रहः ॥ ९ ॥
अग्निका जलाना, प्रकाश करना आदि लक्षण है और जलका बहना चिकनापन आदि लक्षण है इसलिये अपने अपने लक्षणों के भेदसे जिसतरह अग्नि और जल पदार्थ आपसमें जुदे हैं उसी प्रकार अवग्रह और संशयका भी लक्षणों के भेदसे आपसमें भेद है क्योंकि - संशयज्ञान स्थाणु पुरुष आदि अनेक पदार्थों के सहारेसे होता है इसलिये अनेक पदार्थात्मक है और अवग्रह पुरुष आदि एक ही पदार्थ के अवलंबन से होता है इसलिये एकपदार्थात्मक है । संशयज्ञान से स्थाणुके धर्म और पुरुष के धर्मो का निश्चय नहीं होता इसलिये वह स्थाणु और पुरुषके अनेक धर्मोंका आनश्चयस्वरूप है और अवग्रहसे पुरुष आदि किसी एक धर्मका निश्चय होता है इसलिये वह एक धर्मका निश्चायक है । एवं संशयज्ञानसे न तो स्थाणु रहनेवाले धर्मों का निषेध होता है और न पुरुषमें रहनेवाले धर्मों का निषेध होता है इसलिये वह स्थाणु और पुरुष के अनेक धर्मोंका अनिषेधक है और अवग्रह अन्य पर्यायोंका निषेधकर एकमात्र पुरुष
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अध्याय
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