Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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ज्ञानस्वरूप परिणत होना चाहता है उससमय उसके उसप्रकार के परिणमनमें मतिज्ञान निमित्त कारण होता है क्योंकि सम्यग्दृष्टि आत्मा कर्णेद्रियका अवलंबन रहनेपर तथा वाह्यमें आचार्यों द्वारा पदार्थों का | उपदेश मिलने आदि निमित्तों के समीपमें रहने पर भी जब ज्ञानावरण कर्मके उदयसे अंतरंग में श्रुतज्ञान | स्वरूप परिणत होना नहीं चाहता तब श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती इसलिये अंतरंग में श्रुतज्ञा|नावरण कर्म के क्षयोपशम से श्रुतज्ञानस्वरूप पर्याय के आभिमुख आत्मा ही वाह्य में मतिज्ञान आदि निमित्तों की | अपेक्षा रखता हुआ स्वयं श्रुतज्ञानी कहा जाता है । मतिज्ञान श्रुतज्ञान नहीं कहा जा सकता किंतु मतिज्ञान उसकी उत्पत्ति में निमित्त कारण है । निमित्त कारण के गुण कार्यमें आ नहीं सकते इसलिये जब श्रुतज्ञानका मतिज्ञान कारण है तब मतिज्ञान के गुण श्रुतज्ञानमें आने चाहिये और गुणों के आनेसे उसे | मतिज्ञान ही कहना चाहिये यह कहना व्यर्थ है । और भी यह बात है -
अनेकांताच्च ॥ ५ ॥
"कारण के समान ही कार्य होते हैं यह एकांत नहीं है किंतु वहां भी सप्तभंगी घटित होती है कथंचित सहरा है और कथंचित् सदृश नहीं भी है यह सिद्धांत माना है । जिसतरह अजीवपना और ज्ञानादि उपयोगरहितपना जैसा मिट्टी में है वैसा ही घटमें है इसलिये अजीवपना और उपयोग से रहितपनाकी अपेक्षा तो मिट्टी के सदृश घट है और जैसा मिट्टीका पिंड है वैसा घटका नहीं एवं जैसा मिट्टी का आकार है वैसा घटका नहीं इसप्रकार पिंड और आकारकी विषमताकी अपेक्षा मिट्टीक समान घट नहीं भी है। यह यहांपर सात भंगों में आदिके दो भंगों की अपेक्षा कथन है इसीतरह कथंचित् सदृश है भी और नहीं भी है । कथंचित् अवक्तव्य है इत्यादि वाकीके भंग समझ लेने चाहिये । यदि सर्वथा मिट्टी के
अध्याय
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