Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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रा०रा० भाषा
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कोई उसे स्वभावसे नित्य और कोई उसे अनित्य मानता है । कोई जीवको कालसे स्वतः मानता है कोई परतः मानता है । कोई अनित्य और कोई नित्य । कोई देवसे जीवको स्वतः मानता है कोई परतः कोई नित्य मानता है और कोई अनित्य । किसीका सिद्धांत है जीव पौरुषसे स्वतः है कोई कहता है परतः है, अनेक कहते हैं पौरुषसे जीव नित्य है और बहुतसे उसे अनित्य मानते हैं उसी प्रकार अजीव आदि पदार्थों में घटाने से क्रियावादियों के एक सौ अस्सी सिद्धांत भेद हो जाते हैं ।
जीव आदि सात तत्वों का स्वतः और परतः से गुणा करने पर चौदह भेद होते हैं। इन चौदह भेदों का नियति स्वभाव आदि पांचोंसे गुणा करने पर सचर और उन्ही जीव आदि सात तत्वों का पुनः नियति और कालसे गुणा करनेपर चौदह इस प्रकार सब मिलाकर ये चौरासी प्रकार के सिद्धांत भेद अक्रियावादियों के हैं । कोई मानते हैं कि जीवादि पदार्थ नियाते स्वभाव आदिले स्वतः हैं कोई मानते हैं परतः इत्यादि ऊपर लिखे अनुसार समझ लेना चाहिए ।
जीव अजीव आदि नौ पदार्थोंको सात भंगों से गुणा करने पर त्रेसठ भेद हो जाते हैं । कोई मानता है जीव अस्तित्व स्वरूप है । कोई नास्तित्व स्वरूप, कोई अस्तित्व नास्तित्व स्वरूप, कोई अवक्तव्य स्वरूप कोई अस्तित्व विशिष्ट अवक्तव्यस्वरूप, कोई नास्तित्व विशिष्ट अवक्तव्य स्वरूप, और कोई अस्तित्व नास्तित्व विशिष्ट अवक्तव्य स्वरूप स्वीकार करता है । इसीप्रकार अजीव आदि पदार्थों में समझ लेना चाहिए इसतरह सठि भेद तो ये और कोई पदार्थकी उत्पत्ति सत्स्वरूप मानता है १ कोई. असत्स्वरूप २ कोई उभय स्वरूप ३ कोई अवक्तव्य स्वरूप स्वीकार करता है ४ चार भेद ये इसप्रकार दोनोंके जोडनेसे सडसठि भेद सिद्धांत अज्ञानवादियोंके हैं ।
अध्याप
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