Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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5 नामका अवधिज्ञानका भेद है। जिसतरह इंधन ज्यों ज्यों समाप्त होता जाता है आग्निकी शिखा भी त्यों ॐ त्यों कम होती चली जाती है उसी तरह जो अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन गुणकी हीनता और संक्लेश परि६ णामोंकी वढवारीसे जितना उत्पन्न हुआथा उससे अंगुलके असंख्यातवे भाग पर्यंत कमता चला जाता ॥ है वह हीयमान नामका अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन आदि गुणोंकी समीपतासे जितने हूँ हूँ परिमाणसे उत्पन्न हुआ है उतना ही संसारका नाश वा केवलज्ञानकी उत्पचि पर्यंत रहता है लिंगके है। र समान-जिसप्रकार शरीरमें तिल वगैरह चिन्ह न्यूनाधिकतारहित तदवस्थ रहते हैं उसीप्रकार जो अव- विज्ञान घटता वढता नहीं, वह अवस्थित नामका अवधिज्ञान है । और जो अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन
आदि गुणोंकी वृद्धिसे जितना वह वढ सके उतना वढता चला जाता है और उन गुणोंकी हानिसे
जितना घट सके उतना घटता चला जाता है वह अनवस्थित नामका अवधिज्ञान है । इस प्रकार यह 1 छह प्रकारका अवधिज्ञान है।
पुनरपरेऽवधस्त्रयो भेदा देशावधिः परमावधिः सर्वावधिश्चेति ॥५॥ देशावधि परमावधि और सर्वावधि ये भी तीन भेद अवधिज्ञान के हैं। जघन्य, उत्कृष्ट और अज-है। धन्योत्कृष्टके मेदसे देशावधि तीनप्रकारका है। परमावधिक भी जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्योत्कृष्ट ये तीन भेद है। सर्वावधिका कोई भेद हो नहीं सकता इसलिये वह एकही प्रकारका है । जघन्य देशावधि उत्सेध अंगुलके असंख्यातवे भाग क्षेत्रको विषय करता है । उत्कृष्ट देशावधि समस्त लोकके क्षेत्रको
विषय करता है और जो जघन्य देशावधि और उत्कृष्ट देशावधिके क्षेत्रको विषय न कर वीचके क्षेत्र १ 5 को विषय करनेवाला है वह अजघन्योत्कृष्ट अवधि है और उसके संख्याते भेद हैं । जघन्य परमावधि