Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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स्पर्धकों को सदवस्थारूप, उपशम-सचा में रहना हो वह क्षयोपशम है । यह क्षयोपशम शब्दका स्पष्ट अर्थ हुआ। शंका
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शेषग्रहणादविशेषप्रसंग इति चेन्न तत्सामर्थ्याविरहात् ॥ १ ॥ यथोक्तनिमित्तसंनिधाने सति शांतक्षीणकर्मणां तस्योपलब्धेः ॥ २ ॥ ..
सूत्रमें जो शेष शब्द है उसका 'देव और नारकियोंसे जो अन्य हैं वे शेष हैं' यह अर्थ लिया गया है| देव और नारकियोंसे तो सब तिथंच और मनुष्य भिन्न हैं इसलिये सभी तियंच और मनुष्यों के अवधिज्ञान होना चाहिये परन्तु सबके होता नहीं इसलिये शेष शब्दका ग्रहण व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं । जिनके (तिथंच और मनुष्यों में) अवधिज्ञानके होने की सामर्थ्य है उन्हीं के अवधिज्ञान होता है सबके नहीं जो जीव असंज्ञी - मनरहित और अपर्याप्त-पर्याप्तियोंकी परिपूर्णतारहित हैं उनके अवधिज्ञानके प्राप्त करने की सामर्थ्य नहीं । तथा संज्ञी - मनसहित और पर्याप्त जीवों में भी हर एकके अवधिज्ञानकी प्राप्ति
योग्यता नहीं किंतु सम्यग्दर्शन आदि पूर्वोक्त कारणोंके विद्यमान रहते जिनके अवधिज्ञानावरण कर्मक्षयोपशम है उन्होंके अवधिज्ञान होता है । प्रत्येक तियंच वा मनुष्य के अवधिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होता नहीं इसलिये सबके अवधिज्ञान नहीं हो सकता । शंका - ऊपर भवकारणक अवधिज्ञानमें भी क्षयोपशमको कारण कह आए हैं इसलिये जब सर्वत्र अवधिज्ञान क्षयोपशमकारणक ही है• विना क्षयोपशमके नहीं हो सकता तब देव नारकियोंसे भिन्न शेषोंके अवधिज्ञान क्षयोपशमसे होता है यह कहना व्यर्थ है ? उत्तर -
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अध्या
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