Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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A
अध्याय
बरा. भाषा
३८७
सर्वस्व क्षयोपशमनिमित्तत्वे तद्वचनं नियमार्थमन्भक्षनत् ॥३॥ जिस तरह जलके पीनेवाले सभी व्याक्त हैं परन्तु जिसके लिये खासरूपसे यह कहा जाता है कि | यह जलका पीनेवाला है वहांपर मनायास ही यह नियम बन जाता है कि यह केवल जल ही पीता है
और कोई चीज नहीं खाता पीता अन्यथा उसके लिये यह जलका पीनेवाला है। यह प्रयोग व्यर्थ ही है। उसीप्रकार जब सब जीवोंके क्षयोपशमकारणक अवधिज्ञानकी प्राप्ति संभव है तब देव नाराकियोंसे | अन्य शेषोंक वह क्षयोपशम निमिचसे होता है यहांपर भी वह अनायास ही नियमसिद्ध हो जाता है । कि शेषोंके क्षयोपशमनिमित्चक ही अवधिज्ञान होता है भवनिमित्तक अवधिज्ञान नहीं हो सकता। इस- 13 लिये शेषोंके क्षयोपशमजानित ही अवधिज्ञान होता है इस नियमके लिये उनके क्षयोपशमनिमिचक अवधिज्ञानका उल्लेख करना व्यर्थ नहीं।
___ अनुगाम्यननुगामिवर्धमानहीयमानावस्थितानवस्थितभेदात्षड्विधः ॥ ४॥ | अनुगामी अननुगामी २ वर्धमान ३ हीयमान : अवस्थित ५और अनवास्थितके.६ भेदसे अवधिज्ञान छै प्रकारका है। जिसप्रकार सूर्यका प्रकाश सूर्यके पीछे पीछे चलता है उसतिरह जो अवधिज्ञान जहां
आत्मा जाय उसके साथ जाय वह अनुगामी है। सामने खडे हुए प्रश्नकर्ताको उचर देनेवाले पुरुषके वचनोंके || समान जोअवधिज्ञान वहांका वहीं रह जाय-आत्माके साथ न जाय, वह अननुगामी नामका अवधिज्ञानका ६ भेद है । जिसतरह आपसमें वांसोंके घिस जानेसे उत्पन्न सूखे पचोंके ढेर में लग जानेवाली अग्नि उचझा रोचर वढती ही चली जाती है उसीप्रकार जो अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन आदि गुणोंकी विशुद्धता रहने ||६||३८७
पर जितना उत्पन्न हुआ है उससे उत्तरोत्तर असख्यात लोक प्रमाण वढता ही चला जाय वह वर्धमान
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