Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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हल
आचार्यों द्वारा जो संक्षेपसे अंगों के अर्थ और वचनोंकी रचना है: वह अंग वाह्य है । इस : अंगवास के कालिक उत्कालिक आदि अनेक भेद हैं । स्वाध्याय के समय में ही जिसका समय निश्चित है अर्थात् जो समय शास्त्रोंमें स्वाध्यायकेलिए निश्चित है उसी समय जो पढ़ा पढाया जाता है- अन्य समय पढा पढाया नहीं जाता वह कालिक नामका अंग वाह्य है और जिसका कोई समय निश्चित नहीं हर समय जो पढा पढाया जा सकता है वह उत्कालिक है उसके भेद उत्तराध्ययन आदि अनेक हैं । विशेष—
सामायिक १ चतुर्विंशतिस्तव २ वंदना ३ प्रतिक्रमण ४ वैनायक ५ कृतिकर्म ६ दशवैकालिक ७ उत्तराध्ययन ८ कल्प व्यवहार ९ कल्पकल्प्य १० महाकल्प ११ पुंडरीक १२ महा पुंडरीक १३ और निषिद्धिको १४ । ये चौदह भेद अंग वाह्यके हैं । इनको प्रकीर्णक भी कहा जाता है । सामायिक में शत्रु मित्र सुख दुःख आदि राग द्वेष की निवृत्चिपूर्वक समभावका वर्णन है । दूसरे चतुर्विंशति स्तव में तीर्थं करोंकी स्तुतिका निरूपण है। तीसरे वंदना प्रकीर्णकमें वंदना के योग्य पंच परमेष्ठी भगवानकी प्रतिमा मंदिर तीर्थ और शास्त्रों का प्रतिपादन है और वंद्य वंदनाकी विधि बतलाई है । चौथे प्रतिक्रमण प्रकीर्णकमें द्रव्य क्षेत्र काल आदि के द्वारा किए गए पापोंका शोधन प्रायश्चित्त आदिका वर्णन है पांचवें वैनयिक प्रकीकमें दर्शन विनय ज्ञानविनय चारित्रविनय तपविनय और उपचार विनयका सविस्तर वर्णन है । कृतिकर्म
१ | गाथा - सामाइ चवीसत्थयं तदो वंदना पडिकमणं । वेणइयं किदियम्मं दसवेयालं च उत्तरझवणं ॥ ३६७ ॥ कष्पमवहारकप्पाकपिय महकप्पियं च पुंडरियं । महपुंडरीय विसिहियमिदि चोदस मंगवाहिरयं ॥ ३६८ ॥ छाया - सामायिकं चतुर्विंशस्तवं ततो वंदना प्रतिक्रमणं । वैन पिंक कृतिकर्म दशवेकालिक चं उत्तराध्ययनं ॥ ३६७ ॥ कल्प्य - व्यवहार- कल्प्याकप्टयक-महाकल्प्यं च पुंडरीकं । महापुंडरीकं निषिद्धिका इति चतुर्दशांगवाएं || ३६८ ॥ गो० जीवकांट ।
अध्याय
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