Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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हूँ की अपेक्षा वा द्रव्यार्थिक पयायार्थिक दोनों नयोंकी अपेक्षा मुख्य और गौणरूपसे जहांपर छहों द्रव्यों हैं के स्व और पर पर्यायोंके भाव और अभावका निरूपण हो वह अस्ति नास्ति प्रवाद हैं। जहां मतिज्ञान
आदि पांचों ज्ञानोंकी उत्पचि, उनके विषय तथा उनके आधारभूत ज्ञानी, अज्ञानी और पांचों इंद्रियोंके विभागका विस्तारसे निरूपण हो वह ज्ञानप्रवादपूर्व है । जहाँपर वचनोंकी गुप्ति, वचनोंके संस्कारके
कारण, वचनोंके प्रयोग, बारह प्रकारकी भाषा, उनके बोलनेवाले, अनेक प्रकार के असत्योंका उल्लेख 8 और दश प्रकारके सत्योंका स्वरूप वर्णन हो वह सत्यप्रवाद है। मनोगुप्ति वचनगुप्ति और कायगुप्तिके * भेदसे गुप्ति तीन प्रकार है उसका स्वरूप आगे विस्तारसे कहा जायगा। वचनके संस्कारके कारण शिर हूँ कंठ तालु आदि आठ स्थान हैं। शुभ और अशुभके भेदसे वचन प्रयोग दो प्रकारका है उसके स्वरूप
का निरूपण आगे किया जायगा। अभ्याख्यानवचन १ कलहवचन २ पैशून्यवचन ३ असंबद्धप्रलाप
वचन : रत्युत्पादकवचन ५ अरत्युत्पादक वचन ६ उपधिवचन ७ निकृतिवचन 6 अप्रणतिवचन १ , मोषवचन १० सम्यग्दर्शनवचन १५ मिथ्यादर्शनवचन १२ इसप्रकार भाषाके बारह भेद हैं। जो पुरुष
हिंसाका करनेवाला वा जो उससे विरत-रहित है अथवा जो विरताविरत कुछ अंशका त्यागी और , कुछ अंशका त्यागी नहीं है उनके विषयमें यह कहना कि यह अमुक हिंसाजनक कार्यका कर्ता है यह % हिंसाजनक कार्यका कर्ता नहीं है वह अभ्याख्यान वचन है । लडाई झगडा करनेवाला वचन कहना * कलहवचन है । दूसरेके दोषोंको पीठ पीछे कहना पैशून्य वचन है.। जो वचन धर्म अर्थ काम और मोक्ष हूँ का उपदेशक न हो केवल प्रलाप ही प्रलाप हो वह असंबद्ध प्रलापवचन है । शब्दरूप आदि विषयों में
वा देश आदिमें जो वचन रतिका उत्पन्न करनेवाला हो वह रत्युत्पादक वचन है और उन्हीं में जो अरति
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