Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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सरा माषा
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६ सामान्यरूपसे श्रुतज्ञानको मतिज्ञानपूर्वक कहना अयुक्त है ? सो ठीक नहीं। यह ऊपर कहा जा चुका || र है कि श्रुतशब्द रूढ है । जो शब्द रूढ होते हैं वे अपने व्युत्पचिसिद्ध अर्थकी अपेक्षा नहीं करते।
यद्यपि 'सुनकर जो निश्चय होना वह श्रुत है' श्रुतशब्दके इस अर्थसे श्रोत्रंद्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वकता
ही श्रुतज्ञानके सिद्ध होती है तो भी रूढिबलसे समस्त इंद्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वकता उसके मानी है श्रुत 2 का लक्षण यही है कि अर्थसे अर्थातरका बोध होना, वह लक्षण जहां प्रत्येक इंद्रियसे पदार्थ ग्रहण होकर
अर्थसे अर्थातरका बोध होगा वहां सर्वत्र घटित होगा इसलिये सामान्यसे मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है इस अर्थके माननेमें कोई आपचि नहीं । यदि कदाचित् यह कहा जाय कि' आदिमतोऽतवत्त्वाच्छूतस्यानादिनिधनत्वानुपपत्तिरिति चेन्न द्रव्यादिसामान्यापेक्षया तत्सिद्धेः ॥७॥
श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है इस अर्थसे श्रुतज्ञानको सादिपना सिद्ध होता है । जिस पदार्थकी आदि है उसका अंत भी नियमसे है इसरीतिसे जब श्रुतज्ञानके आदि अंत दोनों सिद्ध हैं तब अनादिनिधनं श्रुतं श्रुतज्ञान आदि अंत रहित है, यह कथन बाधित हो जाता है तथा जो पदार्थ पुरुष के प्रयत्नसाध्य होता है वह प्रमाणिक नहीं गिना जाता यदि श्रुतको सादि और सांत माना जायगा तो वह भी है पुरुषकृत ही होने के कारण प्रामाणिक नहीं माना जा सकता इसलिए श्रुतज्ञानको मतिज्ञानपूर्वक मानने में अनेक दोष आते हैं ? सो ठीक नहीं । जिस प्रकार बीजसे अंकूरा, अंकूरासे बीज यहांपर जब संतानकी
अपेक्षा की जाती है तब बीज और अंकुर अनादि निधन कहे जाते हैं क्योंकि बीज और अंकुरकी ६ संततिमें ऐसा कोई भी निश्चयरूपसे नहीं कह सकता कि पहिले बीज है कि पहिले अंकुर है किंतु + विशेष रूपसे जहाँपर किसी बीजसे अंकुर हुआ है वहांपर बीज और अंकुर सादि सांत हैं क्योंकि वहां डू
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