Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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लन्ध्यक्षरत्वात् ॥१९॥ जहांपर श्रुतज्ञानके भेद प्रभेदोंका निरूपण किया गया है वहांपर चक्षु श्रोत्र प्राण रसना स्पर्शन और मनके भेदसे छैप्रकारका लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान माना है।आगमका यह वचन भी है-'चक्षुःश्रोत्रघ्राण. रसनस्पर्शनमनोलब्ध्यक्षर' अर्थात् चक्षु श्रोत्र प्राण रसना स्पशन और मन रूप छैप्रकारका लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान है । इसलिय श्रोत्र घ्राण रसना स्पर्शन और मनरूप लब्ध्यक्षरसे यह वात सिद्ध हो जाती है कि 18 अनिःसृत और अनुक्त शब्दोंके भी अवग्रह आदि ज्ञान होते हैं सार अर्थ यह है कि लब्धिका अर्थ हूँ! क्षयोपशम रूप शक्ति है और अक्षरका अर्थ अविनाशी है अर्थात् जिस क्षयोपशम शक्तिका कभी भी नाश न हो सके वह लब्ध्यक्षर कहा जाता है यह लब्ध्यक्षर ज्ञान श्रुतका बहुत ही सूक्ष्म भेद है इसलिये जब इस लब्ध्यक्षरज्ञानको भी माना जाता है तव अनिःसृत और अनुक्त पदार्थक अवग्रह आदि माननमें कोई दोष नहीं ॥१६॥
बहु बहुविध आदि पदार्थों को अवग्रह आदि विषय करते हैं यह कह दिया गया। अब वे अवग्रह • आदि विशेषण किसके हैं इसवातको सूत्रकार कहते हैं
अर्थस्य ॥ १७॥ नेत्र आदि इंद्रियां जिसे विषय करती हैं वह अर्थ-पदार्थ कहा जाता है उस अर्थके ही ऊपर कहे गये बहु बहुविध आदि विशेषण हैं अर्थात्-बहु बहुविध आदि पदार्थोके अवग्रह आदि होते हैं यह सूत्र 2 ३२१ का अर्थ है । अर्थ शब्दका व्युत्पचिपूर्वक अथ कहा जाता है