Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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इच्छा रहती है उसीके अनुकूल कारकोंकी कल्पना की जाती है। यदिषष्ठी विभक्तिकै निर्देश रहनेपर उसे | वक्ता द्वितीया विभक्ति मानना चाहे तो मान सकता है। एवं वक्ताकी ही इच्छासे षष्ठी विभक्ति के निर्देश का रहने पर सप्तमी विभक्ति मान ली जाती है इस रीतिसे जब अन्य विभक्ति (कारक) के रहते अन्य है। विभक्ति मान ली जा सकती है तब 'अर्थस्य' ऐसा षष्ठवंत सूत्र न कह कर अर्थे' यह सप्तम्यंत कहना | चाहिए। यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि जब पदार्थ ज्ञानमें विषयकी उपस्थिति आवश्यक कारण नहीं सिद्ध का होती तबअर्थका ज्ञान अथवा अर्थके विषयमें ज्ञान कुछ भी कहा जासकता है ऐसी अवस्थामें षष्ठी या सप्तमी || विभक्तिका प्रयोग वक्ताकी इच्छा पर ही निर्भर है।
क्रियाकारकसंबंधस्य विवक्षितत्वात् ॥५॥ ___ अवग्रह आदि ज्ञानोंको क्रिया विशेष-(जानना, स्वरूप) कह आए हैं क्रिया कर्मविशिष्ट होती र है। उसका कोई न कोई कर्म मानना पडता है इसलिए यहां अवग्रह आदि क्रियावोंका बहु बहु बिध
आदि भेद विशिष्ट अर्थको कर्म माना है अर्थात् बहु बहु विध आदि भेद विशिष्ट पदार्थोंको अवग्रह
आदि ज्ञान जानते हैं। शंका-- IPI बह्लादिसामानाधिकरण्याबहुत्वप्रसंगः॥ ५॥ नवानमिसंबंधात् ॥ ७॥ अवगृहणादिभिः॥८॥ . | बहु बहुविध आदि ही तो पदार्थ हैं उनसे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है ऐसी अवस्थामें "बहुबहुविध| क्षिप्रानिःसृतानुक्तभुवाणां सेतराणां" यहां पर तो षष्ठी विभक्तिके बहुवचनका निर्देश है और 'अर्थस्य' यहां पर षष्ठी विभक्तिके एक वचनका निर्देश है । इसलिये विभिन्न वचन होनेसे दोनोंका सामानाधिक रण्य नहीं हो सकताइसरीतिसे बहु बहुविध आदि एवं अर्थ, इन दोनोंका आपसमें जब सामानाधिकरण्ये
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