Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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में है जब बिल्ली आदिके चक्षुमें किरणें प्रत्यक्ष सिद्ध हैं तब हरएक चक्षुको किरणवाला और.तेजस, माना है जा सकता है कोई दोष नहीं ? सो भी ठीक नहीं। रत्न कांच आदिक पदार्थ तैजस नहीं हैं तो भी उनके |
अंदर किरणें दीख पडती हैं. इसलिये किरणवाला पदार्थ तेजस ही होता है यह बात प्रमाणीक नहीं मानी जा सकती इससे सिद्ध होता है कि जो पुद्गल तैजस नहीं है उसमें भी भासुर परिणाम पाया जाता है।
और भी यह बात है कि18 जो गतिमान् पदार्थ होता है वह सबसे पहिले समीप पदार्थके पास जाता है पीछे दूर पदार्थके ||६||
* पास पहुंचता है। यह वात नहीं कि वह समीप और दूरवर्ती दोनों पदार्थों के पास एकसाथ पहुंच सके।३|| । रश्मिरूप चक्षुको परवादी गतिमान मानता है इसलिये उसकी गति भी पहिले समीप पदार्थों के साथ |६|
और पीछे दूरवर्ती पदार्थोंके साथ होनी चाहिये परंतु यह स्पष्टरूपसे दीख पडता है कि जिससमय किसी
वृक्ष के नीचे खडा रहनेवाला ऊपरको देखता है तो उसे एक ही समयमें शाखा और चंद्रमाका ज्ञान 3 होता है वहांपर.थोडा भी कालका भेद नहीं जान पडता यदि चक्षु गतिमान पदार्थ होता तो उसे समी
पमें रहनेवाली शाखा और इतनी दूरी पर रहनेवाला चंद्रमा दोनोंका ज्ञान एक साथ नहीं होता क्योंकि 18 चक्षु दोनोंके पास एक साथ नहीं पहुंच सकता इसलिये गतिका वैधर्म्य होनेसे भी चक्षुको प्राप्यकारी
नहीं माना जा सकता। तथा यदि चंक्षुको प्राप्यकारी ही माना जायगा तो अत्यंत अंधकारमयी रात्रिमें जहां पर दूर प्रदेशमें अमि जल रही है वहीं उसके पासके पदार्थ तो चक्षुसे दीख पडते हैं किंतु जहां पर
१ नैयायिक आदि रत्नोंको भी तैजस ही मानते हैं और वे कहते हैं कि रत्नमें पार्थिव भाग अधिक है इसलिये उसकी उष्णता नहीं जान पढती परन्तु उष्ण अनुष्ण पदार्थका एक जगह मानना उन्हकि सिद्धांतसे बाधित है।
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