Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अर्थ-जिस प्रकार नेत्रइंद्रिय जिस समय रूपका ग्रहण करती है उस समय वह रूपके ग्रहण करनेमें दूसरी इंद्रियकी अपेक्षा नहीं करती इसलिये उसे इंद्रिय कहा जाता है उसीप्रकार मन भी जिस समय गुण और दोषोंका विचार करता है उस समय उस विचारमें वह किसी भी अन्य इंद्रियकी अपेक्षा नहीं 81 रखता इसलिये उसे भी इंद्रिय कहना चाहिये अनिद्रिय नहीं ? सो ठीक नहीं। जिस प्रकार नेत्र आदि इंद्रिय आपसमें एक दूसरेको प्रत्यक्ष दीख पडती हैं उसप्रकार मन, प्रत्यक्षसे नहीं दीख पडता किंतु वह हूँ सूक्ष्म द्रव्यका परिणमनस्वरूप है इसलिये वह चक्षु आदि इंद्रियोंके समान इंद्रिय नहीं कहा जा सकता किंतु अनिद्रिय ही है । जब मन अनिद्रिय पदार्थ है तब उसके अस्तित्वका ज्ञान कैसे हो सकता है ? इस वातका समाधान वार्तिककार देते हैंअनुमानात्तस्याधिगमः ॥६॥ युगपज्ज्ञानक्रियानुत्पत्तिर्मनसो हेतुः॥७॥
अनुस्मरणदर्शनाच्च ॥८॥ यद्यपि सूर्यका गमन प्रत्यक्षसे नहीं दीखता तो भी वह पूर्व दिशामें उदित हो कर पश्चिम दिशामें , है जाकर अस्त होता है यह बात गमन किए बिना नहीं बन सकती, इस अनुमानसे उसका गमन हैं निश्चित कर लिया जाता है । आम्र वृक्ष आदि वनस्पतियोंका बढना घटना प्रत्यक्षसे नहीं दीख पडता
तो भी उत्पचि कालमें वृक्ष बहुत छोटा होता है पीछे बहुत बड़ा हो जाता है। वृक्षोंमें वृद्धि और हास बिना माने उनमें घटना बढना नहीं हो सकता इस अनुमानसे वनस्पतिमें वृद्धि हासका निश्चय कर लिया जाता है उसी तरह यद्यपि प्रत्यक्षसे मन नहीं दीख पडता तो भी जब नेत्र आदि पांचों इंद्रियां अपने अपने विषयके ग्रहण करनेमें असमर्थ हैं। उनके विषयभूत रूप आदि पदार्थ भी संसारमें मौजूद
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