Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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देखना चाहता है उस समय उसे चक्षु इंद्रिय रूप करणकी अपेक्षा करनी पडती है । जिस समय वह शब्द सुनना चाहता है उस समय उसे श्रोत्रंद्रियरूप करणकी अपेक्षा करनी पडती है इसी तरह आगे भी जिस जिस इंद्रिय के विषय के ग्रहण करने की अपेक्षा करता है उसे उस उस इंद्रिय स्वरूप करणकी अपेक्षा करनी पडती है इसलिए कोई दोष नहीं। तथा
स नामकर्मसामर्थ्यात् ॥ १०॥
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करणों के जो चक्षु श्रोत्र आदि भेद हैं वे नाम कर्मकी अपेक्षासे हैं और वे इस प्रकार हैं- शरीर नामक नाम कर्म के उदय आदिसे उत्पन्न होनेवाली और जो कि नलीके समान आकारकी धारक श्रोत्र इंद्रिय है वही शब्दों के ज्ञान करने में समर्थ है अन्य किसी इंद्रियसे शब्दका ज्ञान नहीं हो सकता । तथा पूर्वोक्त कर्मके उदय आदिसे उत्पन्न होनेवाली अतिमुक्तक चंद्रकके समान आकार की धारक नासिका इंद्रिय से गंध का ज्ञान नहीं हो सकता। पूर्वोक्त कर्मके उदय आदिसे निर्मित खुरपाके समान आकारकी धारक जिह्वा इंद्रिय है उसीसे इसका ज्ञान हो सकता है अन्य इंद्रिय रसके ज्ञान कराने में समर्थ नहीं । पूर्वोक्त कर्मके उदय आदिसे निर्मित अनेक प्रकारके आकारोंको धारण करनेवाली स्पर्शन इंद्रिय है । स्पर्शके ग्रहण करनेमें इसीको सामर्थ्य है और किसीका स्पर्शन इंद्रिय से ग्रहण नहीं हो सकता । एवं पूर्वोक्त कर्मके उदय आदि से निर्मित मसूरके आकार और कृष्ण तारा मंडलसे अधिष्ठित नेत्र इंद्रिय है । रूपके ग्रहण करने में इसी इंद्रियको सामर्थ्य है और किसी इंद्रियसे रूपका ग्रहण नहीं हो सकता इस प्रकार यह मतिज्ञानके पांचों करणोंकी हेतुपूर्वक सिद्धि कह दी गई। इस मतिज्ञानका स्वरूप द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षा भी ममझ लेना चाहिए और वह इस प्रकार है
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१ तिलका पुष्प ।
अध्याय
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