Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याच
सरा भाषा
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नवग्रह ढके हुए पदार्थको ग्रहण नहीं करा सकती यह जो नेत्र इंद्रियको प्राप्यकारी सिद्ध करनेके लिए |
अनुमान है वह निर्दोष है । सो ठीक नहीं । जिसप्रकार 'सर्वे जीवाः चेतनाः स्वापवत्त्वात् 'सब जीव || हूँ| चेतन हैं क्योंकि सब सोते हैं' यहाँपर स्वापवत्त्व हेतु पक्षाव्यापक है क्योंकि पक्षमें सर्वत्र हेतु न रहै वह ||६|| | पक्षाव्यापक कहा जाता है। स्वापवत्व हेतु वनस्पति कायके जीवोंमें नहीं रहता क्योंकि वे सोते नहीं हूँ | इसलिये समस्त जीवरूप पक्षमें न रहने के कारण वह हेतु पक्षाव्यापक कहा जाता है उसीप्रकार 'आवृ. | तानवग्रहात्' यह जो नेत्रको प्राप्यकारी सिद्ध करने के लिये हेतु दिया है वह भी पक्षाव्यापक है क्योंकि
चक्षुसे ढके हुए पदार्थों का कभी भी ग्रहण न हो सके तब तो वह हेतु पक्षाव्यापक नहीं हो सकता . किंतु ७ कांचके भीतर रक्खे हुए वा अवरख और स्फटिकमणिके भीतर रखे हुए पदार्थों का चक्षुइंद्रियसे ग्रहण ६ होता है इसलिये ढके हुए पदार्थोंका भी ग्रहण होनेके कारण हेतु पक्षाव्यापक दोषसे दूषित हुआ इस हूँ| कारण चक्षुको प्राप्यकारी सिद्ध नहीं कर सकता । तथा 'आवृतानवग्रहत्व' यह हेतु संशय व्यभिचारसे ह भी दूषित है क्योंकि अयस्कांत-चुंबक पत्थर अप्राप्यकारी तो है क्योंकि वह लोहेके पास जाकर लोडेको | ग्रहण नहीं करता परंतु जिससमय वह लोहा ग्रहण करता है उससमय जमीनके अंदर ढके हुए लोहेको all ग्रहण नहीं करता-सामने रक्खे हुएको ही ग्रहण करता है इसलिये अयस्कांत-चुंबक पत्थर रूप विपक्ष में 'आवृतानवग्रहत्व' रूप हेतुके रहनेके कारण यह संशय होता है कि यह हेतु प्राप्यकारित्व सिद्ध करता है | कि अप्राप्यकारित्व ? क्योंकि पक्ष और विपक्ष दोनोंमें रहने के कारण हेतु संशयजनक माना जाता है।
और वह साध्य सिद्ध नहीं कर सकता । 'आवृतानवग्रहत्व' हेतु पक्ष चक्षुमें भी रहता है और विपक्ष ६ |चुंबक पत्थरमें भी रहता है, अप्राप्यकारी होनेसे चुंबक पत्थर विपक्षी है ही।
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