Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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इयर्ति पर्यायानयते वा तैरित्यर्थो द्रव्यः॥१॥ . वाह्य और अंतरंग दोनों कारणोंसे जिनकी उत्पत्ति निश्चित है ऐसे अपने अपने पर्यायोंको जो प्राप्त हो अथवा जिसके द्वारा वे पर्याय प्राप्त किये जाय वह अर्थ है और उसे द्रव्य कहते हैं। अर्थस्य' यह सूत्र है क्यों निर्माण किया गया वार्तिककार इसका समाधान देते हैं
अर्थवचनं गुणग्रहणनिवृत्त्यर्थ ॥२॥ नैयायिक आदिका सिद्धांत है कि रूप आदि गुणोंका ही इंद्रियोंसे सन्निकर्ष होता है-इंद्रियां रूप | || आदि गुणों से युक्त पदार्थों को न ग्रहण कर रूप आदि गुणोंको ही ग्रहण करती हैं उनके सिद्धांतको |
मिथ्या सिद्धांत सिद्ध करनेकेलिये 'अर्थस्य' इस सूत्रका निर्माण है क्योंकि मूर्त इंद्रियोंसे मृतिक पदार्थों हूँ का ही ग्रहण हो सकता है अमूर्तिक पदाथोंका नहीं । रूप आदि गुणोंको उन्होंने अमूर्तिक माना है इस
लिये उन्हें इंद्रियां ग्रहण नहीं कर सकतीं। यदि यहांपर यह कहा जाय कि हम रूपोंका मिलकर पिंड रसोंका मिलकर पिंड इसतरह रूप आदिके पिंडोंकी कल्पना कर लेंगे। पिंड स्वरूप रूप आदिका ज्ञान
इंद्रियोंसे हो सकता है कोई दोष नहीं ? सो भी अयुक्त है क्योंकि अमूर्तिक रूप आदि गुणोंकी पिंड MI कल्पना की ही नहीं जा सकती और भी यह वात है कि रूप आदिके पिंडोंकी कल्पना करनेपर यदि वे
पिंड किसी अन्य स्थूल पदार्थ स्वरूप सिद्ध हो जाय तब तो इंद्रियां उन पिंडोंको ग्रहणकर सकती हैं 18| परंतु अन्य पदार्थांतर रूप तो पिंडोंको नैयायिक आदि सिद्धांतकार मानते नहीं-रूप आदि स्वरूप ही * मानते हैं फिर जब इनका अमूर्तपना ही नष्ट न होगा तब असामर्थ्यसे इंद्रियां उन्हें ग्रहण कर ही नहीं ६ ३२३ | सकती। यदि कदाचित् नैयायिक आदि यह कहें कि-जब विना द्रव्यके रूप आदि गुणोंका इंद्रियोंसे हूँ।
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