Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
कथन है। धारणा वान सबके अंतमें होता है इसलिये सबके अंतमें धारणा ज्ञान रक्खा गया है इसप्रकार उत्पत्तिके क्रमकी अपेक्षा अवग्रह आदिका क्रमसे उल्लेख है। शंका
. अवगृहेहयोरप्रामाण्यं तत्सहावेऽपि संशयदर्शनाचक्षुर्वत ॥६॥
अवगृहवचनादिति चेन्न संशयानतिवृत्तेरालोचनवत् ॥७॥ जिसतरह नेत्रके रहते भी यह स्थाणु है कि पुरुष है ? इसप्रकारका संशय दीख पडता है किंतु यह 8 पुरुष ही है वा स्थाणु ही है इसप्रकारका निर्णय नहीं होता उसीतरह अवग्रहके रहते भी यह पुरुष दक्षिणी है है वा उत्तरी है ? इसप्रकारका संशय रहता है किंतु यह दक्षिणी ही है वा उत्तरी ही है इसप्रकारका निर्णय है
नहीं होता इसीलिये निर्णयके न होनेसे ईहा ज्ञानका अवलंबन किया जाता है तथा इसीतरह ईहाके है 2 रहते भी निर्णय नहीं होता कि-यह दक्षिणी ही है वा उचरी ही है क्योंकि निर्णयकेलिये ईहा ज्ञानका ६ अवलंबन किया जाता है, स्वयं ईहा निर्णयस्वरूप नहीं तथा जो ज्ञान निर्णयस्वरूप नहीं होता वह संशयकी जातिका समझा जाता है इसीलिये जिसतरह संशय ज्ञानको अप्रमाण माना है उसीतरह अवग्रह और ईहाज्ञान भी अप्रमाण है। ___ यदि यहांपर यह कहा जाय कि अवग्रहका कथन सम्यग्ज्ञानके भेदोंमें है और जितना अवग्रहका विषय माना गया है उतने विषयका इससे यथार्थ ज्ञान होता है इसलिये अवग्रह संशय नहीं कहा जा सकता तथा 'यह पुरुष है' यह जो अवग्रहका विषय माना है उसके बोल चाल वय और रूप आदिके द्वारा विशेष रूपसे जाननेकी इच्छाका होना ईहा कहा गया है यहांपर भाईहाका जो विषय माना गया है उतने विषयका यथार्थ ज्ञान है इसलिये यह भी संशय नहीं हो सकता क्योंकि संशयमें यथार्थ ज्ञान
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