Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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पर्याय अवलंबन करता है इसलिये वह अन्य धर्मोका निषेधक है इस रीति से जब अवग्रहज्ञान और संशयज्ञान में लक्षणोंके भेदसे जमीन आकाशका भेद है तब कभी अवग्रहज्ञान संशयज्ञान नहीं कहा जा सकता । शंका
संशयतुल्यत्वमपर्युदासादिति चेन्न निर्णयविरोधात्संशयस्य ॥ १० ॥
जिसतरह संशय से स्थाणु और पुरुष के विशेषों का निषेध नहीं होता इसलिये वह स्थाणु और पुरुष के विशेषोंका अनिषेधक है उसीतरह अवग्रह से भी पुरुष के बोल चाल उम्र और रूप आदि का निषेध नहीं होता इसलिये वह भी भाषा आदिका अनिषेधक है इसीलिये वह उत्तरकालमें बोलवाल आदि विशेषों के निश्चय करनेकेलिये ईहा ज्ञानका अवलंबन करता है इसरीति से संशयज्ञान और अवग्रहज्ञान जब दोनों का विषय एक है तो अवग्रहज्ञानको संशयज्ञान मानना अयुक्त नहीं ? सो ठीक नहीं । संशय के रहते निर्णय नहीं होता अवग्रह के रहते निर्णय होता है इसलिये संशय तो निर्णय का विरोधी है और अवग्रह निर्णयका विरोधी नहीं किंतु निर्णय करानेवाला है अर्थात संशयज्ञान में तो स्थाणु और पुरुष दोनों में किसीका निश्चय नहीं होता और अवग्रहज्ञान में 'यह पुरुष है' ऐसा निश्चय रहता है इसलिये अवग्रह ज्ञानको संशयज्ञान नहीं माना जा सकता । यदि यहाँपर यह शंका की जाय कि -
ईहायां तत्प्रसँग इति चेन्न अर्थादानात् ॥ ११ ॥
अवग्रहज्ञानमें 'यह पुरुष है' ऐसा निश्चय होता है इसलिए निर्णयका विरोधी न होनेसे अवग्रह ज्ञान तो संशयज्ञान नहीं कहा जासकता परंतु ईहाज्ञान तो निर्णयका विरोधी है क्योंकि 'यह दक्षिणी होना चाहिए' ऐसे एक ओर लटकते हुए ज्ञानमें दक्षिणी व उत्तरीका कुछ भी निश्चय नहीं होता इसलिये
अध्याय
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