Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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विधग्रहणं प्रकारार्थं ॥ ९ ॥
विधयुक्त गत और प्रकार ये सब शब्द समान अर्थके वाचक हैं इसलिये सूत्र में जो विध शब्दका उल्लेख किया है उसका अर्थ 'प्रकार' है इस रीतिमे बहुविध शब्दका 'बहुत प्रकार' यह अर्थ है । क्षिप्रग्रहणमचिरप्रतिपत्त्यर्थं ॥ १० ॥
to शब्दका अर्थ 'जल्दी' है । विजली आदि क्षिण पदार्थों के भी अवग्रह आदि होते हैं यह बताने केलिये सूत्र क्षित्र शब्दका ग्रहण किया गया है । अर्थात् पदार्थों की जल्दी प्रतीति हो इसके लिए क्षिप्र शब्दका प्रयोग है ।
अनिःसृतग्रहणमसकलपुद्गलोद्नमर्थं ॥ ११ ॥
जिस पुद्गलपदार्थ के अवग्रह आदि ज्ञान करने हैं उसका समस्त स्वरूप न भी दीखे, कोई एक अव वही दीखे उस अवयव मात्र के देखनेसे उस समस्त पदार्थ के अवग्रह आदि ज्ञान होजाते हैं, यह बात प्रतिपादन करनेकेलिए सूत्रमें अनिःसृत शब्दका उल्लेख किया है । तालाव आदिमें समस्त शरीर के डूब जाने पर भी एक सूंढ मात्र अवयवके देखलेने से हाथीके विषय में अवग्रह आदि ज्ञान होते ही हैं। यहां पर बाहर पदार्थ समस्त स्वरूपका निकला न रहना, 'किसी एक अवयव का निकला रहना' अनिःसृत शब्दका अर्थ है ।
अनुक्तमभिप्रायेण प्रतिपत्तेः ॥ १२ ॥
• विना कहे - इशारेमात्र से वतलाये हुए पदार्थ में भी अवग्रह आदि ज्ञान होते हैं यह बात बतलाने के लिये सूत्र में अनुक्त शब्दका पाठ है । यहाँपर अनुक्त शब्दका अर्थ विना कहा हुआ है ।
अध्याय
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