Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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SANDAR
सा माषा
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5. ग्रहमें भी तत आदि शब्दोंका ही ग्रहण माना है इसरीतिसे बहु और बहुविध जब दोनोंप्रकारके शब्दोंमें
अवमहका विषय समानरूपसे माना है-कोई विशेष नहीं तब उन दोनोंमें एक ही कहना चाहिये, दोनोंका कहना व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं। जिसतरह वाचालतारहित कोई विद्वान बहुतसे शास्रोंका विशेष विशेष | अर्थ न कर एक सामान्य अर्थ ही प्रतिपादन करता है। अन्य विद्वान बहुतसे शास्त्रोंका आपसमें एक ||
दूसरेसे अतिशय रखनेवाले बहुत प्रकारके अर्थोंका प्रतिपादन करता है उसीतरह बहु और बहुविध | दोनों प्रकारके शब्दोंके अवग्रहमें सामान्य रूपसे तत आदि शब्दोंका ग्रहण है तो भी जिस अवग्रहमें | ॥ तत आदि शब्दोंके एक दो तीन चार संख्यात असंख्यात और अनंत प्रकारके भेदोंका ग्रहण है अर्थात् |
अनेक प्रकारके भेद प्रभेदयुक्त तत आदि शब्दोंका ग्रहण है वह बहुविध-बहुत प्रकारके पदार्थों का ग्रहण करनेवाला अवग्रह कहा जाता है और जिस अवग्रहमें भेद प्रभेदोंसे रहित सामान्यरूपसेतत आदि शब्दोंका ग्रहण है वह-वहुतसे शब्दोंका अवग्रह कहा जाता है । शंका
मुखसे पूरे शब्दका निकल जाना निःसृत कहा जाता है यही अर्थ उक्तका भी है फिर दोनोंमें एक हीका कहना आवश्यक है। दोनों शब्दोंका जो सूत्र में उल्लेख किया गया है वह व्यर्थ है ? सो भी ठीक नहीं। किसी अन्यके कहने पर जहां शब्दका ग्रहण होता है जिसतरह किसीने गोशब्दका उच्चारण किया वहां पर 'यह गो शब्द है ऐसा ज्ञान होना वह उक्त कहा जाता है और अन्यके विना ही बताये | सामने पदार्थके रहनेपर यह अमुक पदार्थ है ऐसा स्वयं ज्ञान होना निःसृत है । इसलिये उक्त और निःसृतका भेद रहनेपर वे एक नहीं कहे जा सकते। इस प्रकार श्रोत्रइंद्रियकी अपेक्षा | आदिका अवग्रह बतला दिया गया अब नेत्र इंद्रियकी अपेक्षा बतलाया जाता.है
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