Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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हो सकता परन्तु संशयस्थल में स्थाणुमें पुरुषकी और पुरुषमें स्थाणुको प्रतीति निर्बाध है इसलिये स्थाणुमें पुरुषकी प्रतीतिका और पुरुषमें स्थाणुकी प्रतीतिका (संशयका ) अभाव इष्ट नहीं कहा जा सकता । अतः ऐक ज्ञान एक ही पदार्थको विषय करता है यह बौद्धोंकी कल्पना कभी निर्दोष नहीं मानी जा सकती किंतु अनेक अर्थों को ग्रहण करनेवाला ही विज्ञान माना जायगा । तथा
ईप्सितनिष्पत्तिः, अनियमात् ॥ ६ ॥
विज्ञान एक समय में एक ही पदार्थको ग्रहण करता है यदि यही सिद्धान्त माना जायगा तो चित्रक्रियामें कुशल कोई चैत्र नामका मनुष्य जिस समय पूर्णकलशका चित्र खींच रहा है उस समय 'चित्र कैसे बनना चाहिये' इसप्रकार चित्रक्रियाका ज्ञान उसका भिन्न है और घटके आकार प्रकारका ज्ञान भी उसका भिन्न है इसलिये आपसमें उनके विषयका मिलाप नहीं हो सकता तथा अनेक विज्ञानोंकी एक साथ उत्पत्ति मानी नहीं गई इसलिये उस एक क्षणस्थायी ज्ञानमें ही घटकी एक साथ उत्पत्ति माननी पडेगी क्योंकि दूसरे क्षण में चित्रक्रिया और घटके आकार प्रकारका ज्ञान उपयोगी हो नहीं सकता परंतु घटकी एक साथ उत्पत्ति न होकर क्रम क्रमसे ही उत्पत्ति देखने में आती है इसलिये एक ज्ञान एक ही पदार्थको विषय करता है यह वात कभी नहीं मानी जा सकती किंतु उसे नाना पदार्थों का विषय करनेवाला ही मानना होगा। और भी यह वात है
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द्वित्र्यादिप्रत्ययाभावाच ॥ ७ ॥
यदि ज्ञानको एक ही पदार्थका विषय करनेवाला माना जायगा तो उससे दो तीन आदि पदार्थों
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अध्याय
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